Bihar board intermediate question paper 2009 psychology Class 12th इंटरमीडिएट में पूछे गए हैं मनोविज्ञान के प्रश्न उत्तर 2009 में पूछे गए महत्वपूर्ण प्रश्न उत्तर

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Bihar board intermediate question paper 2009 psychology
1. व्यवहार चिकित्सा क्या है ? 
उत्तर:-  व्यवहार चिकित्सा, जिसे व्यवहार परामर्श भी कहा जाता है । इस चिकित्सा का आधार अनुबंधन का नियम अथवा सिद्धान्ता होता है । इस चिकित्सा पद्धति की प्रमुख मान्यता यह है कि रोगी दोषपूर्ण समायोजन पैटर्न को सीख लेता है, जो स्पष्टतः किसी-न-किसी स्रोत से पुनर्वलित होकर संपोषित होते रहता है । फलतः इस तरह की चिकित्सा में चिकित्सक का उद्देश्य दोषपूर्ण समायोजन पैटर्न या अपअनुकूली समायोजन पैटर्न के जगह पर अनुकूली समायोजन पैटर्न को सीखला देना होता

2.संज्ञानात्मक व्यवहार चिकित्सा क्या है ? 
उत्तर:- संज्ञानात्मक व्यवहार चिकित्सा का उद्देश्य व्यक्ति को दबाव के विरुद्ध संचारित करना होता है । व्यक्ति के नकारात्मक तथा अविवेकी विचारों के स्थान पर सकारात्मक तथा सविवेक विचार प्रतिस्थापित कर दिए जाएँ । इसके तीन प्रमुख चरण हैं- मूल्यांकन, दबाव न्यूनीकरण तकनीकें तथा अनुप्रयोग एवं अनुवर्ती कार्रवाई । मूल्यांकन के अंतर्गत समस्या की प्रकृति पर परिचर्चा करना तथा उसे व्यक्ति । सेवार्थी के दृष्टिकोण से देखना सम्मिलित होते हैं । दबाव न्यूनीकरण के अंतर्गत दबाव कम करनेवाली तकनीकों जैसे- विश्रांति तथा आत्म-अनुदेशन को सीखना सम्मिलित होते हैं ।

3. मनोवृत्ति के स्वरूप का वर्णन करें । 
उत्तर:-  मनोवृत्ति या अभिवृत्ति एक प्रचलित शब्द है जिसका हम प्रायः अपने दैनिक जीवन में दिन-प्रतिदिन करते रहते हैं । अर्थात् किसी व्यक्ति को मानसिक प्रतिछाया या तस्वीर को, जो किसी व्यक्ति या समूह, वस्तु, परिस्थिति, घटना आदि के प्रति व्यक्ति के अनुकूल या प्रतिकूल दृष्टिकोण अथवा विचार को प्रकट करता है । मनोवृत्ति या अभिवृत्ति कहते हैं ।

4.पूर्वाग्रह का अर्थ लिखें । 
उत्तर:- पूर्वाग्रह या पूर्वधारणा अंग्रेजी भाषा के Prejudice का हिन्दी अनुवाद है जो लैटिन भाषा के Prejudicium से बना है। Pre का अर्थ है पहले और Judicium का अर्थ है निर्णय । इस दृष्टिकोण से पूर्वधारण या पूर्वाग्रह का शाब्दिक अर्थ हुआ पूर्व निर्णय । इस प्रकार, पूर्वाग्रह जैसे कि इसके नाम से स्पष्ट है, किसी व्यक्ति अथवा वस्तु के विपक्ष में पूरी तरह से जानकारी किये बिना ही किसी-न-किसी प्रकार का विचार अथवा धारण बन बैठना है ।

5. संवेगात्मक बुद्धि या ई० क्यू० से आप क्या समझते हैं 
उत्तर:- संवेगात्मक बुद्धि या ई० क्यू० संप्रत्यय की व्याख्या सर्वप्रथम दो अमेरिका मनोवैज्ञानिक सैलोवे तथा मेयर ने 1990 ई० में किया। हालाँकि इस पद को विस्तृत करने का श्रेय प्रसिद्ध अमेरिकी मनोवैज्ञानिक डेनियल गोलमैन को जाता है। इन्होंने संवेगात्मक बुद्धि की परिभाषा देते हुए कहा है कि, "संवेगात्मक बुद्धि से तात्पर्य व्यक्ति का अपने तथा दूसरों के मनोभावों को समझना उनपर नियंत्रण रखना और अपने उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु उनका - सर्वोत्तम उपयोग करना है।" इन लोगों का कहना है कि संवेगात्मक बुद्धि हमारी सफलता का अस्सी प्रतिशत भाग निर्धारित करता है । इस प्रकार संवेगात्मक बुद्धि का तात्पर्य उस कौशल से है जिससे हम अपने आंतरिक जीवन का प्रबंध करते हैं और लोगों के साथ तालमेल बिठाकर चलते हैं ।

6. अभिक्षमता क्या है ? 
उत्तर:- किसी विशेष क्षेत्र की विशेष योग्यता को अभिक्षमता कहते हैं । अभिक्षमता विशेषताओं का एक समायोजन है जो व्यक्ति द्वारा प्रशिक्षित के उपरांत किसी विशेष क्षेत्र के ज्ञान अथवा कौशल की क्षमता को प्रदर्शित करता है । जैसे- यदि हमें गणित की किसी समस्या का समाधान ढूँढ़ने में हम किसी गणित के जानकार व्यक्ति से सहायता लेते हैं लेकिन यदि किसी कविता में कठिनाई होती है तो इसके लिए हम हिन्दी के जानकार व्यक्ति से सहायता लेते हैं । इसी तरह स्कूटर में कोई समस्या होती है तो स्कूटर मेकेनिक के पास जाते हैं । भिन्न-भिन्न क्षेत्रों की ये कौशल ही अभिक्षमताएँ कहलाती हैं ।

7.अंतर्मुखी तथा बहिर्मुखी व्यक्तित्व प्रकार में अंतर बताइए। 
उत्तर:- युंग ने व्यक्तित्व का वर्गीकरण व्यवहार की प्रवृत्तियों के आधार पर दो प्रकारों से किया है इन दोनों प्रकार के व्यक्तियों के अलग-अलग विशेषताएँ एवं गुण हैं; जो निम्नांकित हैंयुंग के अनुसार अन्तर्मुखी प्रकार के व्यक्ति एकांतप्रिय एवं आदर्शवादी विचारों के होते हैं, जबकि बहिर्मुखी प्रकार के व्यक्ति समाजप्रिय एवं यथार्थवादी विचारों के होते हैं । दूसरा अंतर यह है कि अन्तर्मुखी व्यक्ति आत्मगत दृष्टिकोण वाले होते हैं लेकिन व्यवहार कुशल नहीं होते हैं । जबकि बहिर्मुखी व्यक्ति वस्तुगत दृष्टिकोण वाले होते हैं लेकिन व्यवहार कुशल होते तीसरा अंतर यह होता है कि अन्तर्मुखी व्यक्ति कल्पनाशील होते हैं। ये वैज्ञानिक, कवि, दार्शनिक आदि होते हैं जबकि बहिर्मुखी व्यक्ति सामाजिक कार्यों में रुची लेते हैं, अतः ये नेता, समाजसुधारक, सामाजिक कार्यकर्त्ता आदि होते हैं ।

8. शेल्डन के अनुसार व्यक्तित्व के प्रकारों का वर्णन करें ।
उत्तर:- मनोवैज्ञानिक शेल्डन द्वारा प्रतिप्रादित व्यक्तित्व के प्रारूप सर्वविदित हैं । शारीरिक बनावट और स्वभाव को आधार बनाते हुए शेल्डन ने गोलाकृतिक, आयताकृतिक और लंबाकृतिक जैसे व्यक्तित्व के प्रारूप को प्रस्तावित किया है । गोलाकृतिक प्रारूप वाले व्यक्ति मोल मृदुल और ओल होते हैं । स्वभाव से वे लोग शिथिल और सामाजिक या मिलनसार होते हैं । आयताकृतिक प्रारूप वाले लोग मजबूत पेशीसमूह एवं सुगठित शरीर वाले होते हैं देखने में आयताकार होता है, ऐसे व्यक्ति ओजस्वी और साहसी होते हैं। लंबाकृतिक प्रारूप वाले पतले, लंबे और सुकुमार होते हैं। ऐसे व्यक्ति कुशाग्र बुद्धि वाले, कलात्मक और अंतर्मुखी होते हैं ।
" आत्मभाव में चिड़चिड़ापन, शब्दग्रहण की क्षमता में कमी, कार्य निष्पादन में विलम्ब तथा त्रुटियाँ, सीखने की अभिरुचि क्षीण, ध्यान में अवरोध, निर्णय क्षमता में कभी आदि अवांछनीय लक्षणों क्रियाशील शोर के प्रभाव के रूप में देखी जा सकती है ।

9. प्राथमिक समूह की विशेषताओं को लिखें
(i) प्राथमिक समूह में मुखोन्मुख अंतः क्रिया होती है । 
(ii) सदस्यों में घनिष्ठ शारीरिक सामीप्य होता है। 
(iii) इनमें एक उत्साहपूर्ण सांवेगिक बंधन पाया जाता है।

10.औपचारिक एवं अनौपचारिक समूह में विभेद करें
औपचारिक एवं अनौपचारिक समूह उस मात्रा में भिन्न होते हैं, जिस मात्रा में समूह के प्रकार्य स्पष्ट एवं औपचारिक रूप से घोषित किये जाते हैं। एक औपचारिक समूह जिसे किसी कार्यालय संगठन के प्रकार्य स्पष्ट रूप से घोषित होते हैं। समूह के सदस्यों द्वारा निष्पादित की जानेवाली भूमिकाएँ स्पष्ट रूप से घोषित होती हैं। औपचारिक तथा अनौपचारिक समूह संरचना के आधार पर एक-दूसरे से भिन्न होते हैं । औपचारिक समूह का निर्माण कुछ विशिष्ट नियमों या विधि पर आधारित होता है और सदस्यों की सुनिश्चित भूमिकाएँ होती हैं।
औपचारिक समूह में मानकों का एक समुच्चय होता है जो व्यवस्था स्थापित करने में सहायक होता है। कोई भी विश्वविद्यालय एक औपचारिक समूह का उदाहरण है। दूसरी तरफ अनौपचारिक समूहों का निर्माण नियमों या विधि पर आधारित नहीं होता है और इस समूह के सदस्यों में घनिष्ठ संबंध होता है।

11. व्यवहार पर शोरगुल के प्रभाव का वर्णन करें
मानव व्यवहार पर शोर का प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। मानव शारीरिक और मानसिक दोनों तरह की दुविधाओं से त्रस्त हो जाती है का प्रत्यक्ष शोर के कारण मनुष्य जल्दी थक जाता है, उसे स्वयं में ऊर्जा की कमी महसूस होने लगती । क्रोध प्रकट करना, प्रिय एवं उपयोगी साधनों को भी पटक देना, चिल्लाना, कम सुनना आदि लक्षण उभरने लगते हैं। नकारात्मक कार्य निष्पादन पर शोर के प्रभाव को उसकी तीन विशेषताएँ निर्धारित करती हैं, जिन्हें शोर की तीव्रता, भविष्यफकशनीयता तथा नियंत्रणीयता कहते हैं। मनुष्य पर शोर के प्रभावों पर किए गए क्रमबद्ध शोध प्रदर्शित करते हैं कि शोर के दबावपूर्ण प्रभाव केवल उसके तीव्र या मद्धिम होने से ही निर्धारित नहीं होते बल्कि इससे भी निर्धारित होते हैं कि व्यक्ति उसके प्रति किस सीमा तक अनुकूलन करने में समर्थ हैं, निष्पादन किए जाने वाले कार्य की प्रति क्या है तथा क्या शोर के संबंध में भविष्यकशन किया जा सकता है और क्या उसे नियंत्रित किया जा सकता है ? शोर कभी-कभी सकारात्मक प्रभाव भी दिखाते हैं चुनावी लहर में नारे की ध्वनि, भाषण के मध्य में तालियों की गड़गड़ाहट, पूजा-अर्चना के क्रम में जयकार आदि कर्त्ता में जोश भरने वाले माने जाते हैं ।

12. साक्षात्कार के प्रमुख अवस्थाओं को लिखें
 साक्षात्कार का उद्देश्य चाहे जो भी हो, इसके आधारभूत प्रारूप को तीन अंवस्थाओं में विभाजित किया जाता है । जिसे प्रारंभ मुख्य भाग एवं समापन कहा जा सकता है । 
(i) साक्षात्कार के प्रारंभ में दो संप्रेषकों के बीच सौहार्द स्थापित किया जाता है । इसका मुख्य उद्देश्य यह होता है कि साक्षात्कार देनेवाला आराम की स्थिति में आ जाए । इस अवस्था में साक्षात्कारकर्त्ता बातचीत से शुरुआत करता है और ज्यादा बात करता है, जिससे साक्षात्कार देनेवाला सहज स्थिति में आ जाए ।

(ii) साक्षात्कार का मुख्य भाग इस प्रक्रिया का केन्द्र है । इस अवस्था में साक्षात्कारकर्त्ता सूचना और प्रदत्त प्राप्त करने के उद्देश्य से प्रश्न पूछने का प्रयास करता है जिसके लिए साक्षात्कार का आयोजन किया गया है । प्रश्नों का उपयोग तथ्यों की जानकारी का मूल्यांकन करने के अलावा व्यक्तिपरक मूल्यांकन के लिए भी किया जाता है । ।

(iii) साक्षात्कार का समापन आगे लिए जानेवाले कदम पर चर्चा के साथ होना चाहिए ! साक्षात्कार की समाप्ति के समय साक्षात्कारकर्त्ता को साक्षात्कार देनेवाले को भी प्रश्न पूछने या टिप्पणी करने का अवसर देना चाहिए ।

13. तनाव या दबाव का सामना करने के उपायों को लिखें
दबावपूर्ण स्थितियों का सामना करने की उपायों के उपयोग में व्यक्तिगत भिन्नताएँ देखी जाती हैं। एडलर तथा पार्कर द्वारा वर्णित दबाव का सामना करने की तीन उपाय निम्नलिखित हैंअभिविन्यस्त युक्ति दबावपूर्ण स्थिति के संबंध में सूचनाएँ एकत्रित करना, उनके प्रति क्या-क्या वैकल्पिक क्रियाएँ हो सकती हैं तथा उनके संभावित परिणाम क्या हो सकते हैं - यह सब इसके अंतर्गत आते हैं । 
(i) कृत्य
(ii) संवेग अभिविन्यस्त युक्ति- इसके अंतर्गत मन में आभा बनाए रखने के प्रयास तथा अपने संवेगों पर नियंत्रण सम्मिलित हो सकते हैं। 
(iii) परिहार अभिविन्यस्त युक्ति- इसके अंतर्गत स्थिति की गंभीरता को नकारना या कम समझना सम्मिलित होते हैं ।

14. मनु वरिष्ठ एवं भाग्य व्यवहार के बीच विभेद स्थापित करें
 किसी विशेष विचार या विषय पर चिंतन को रोक पाने की असमर्थता मनोग्रसित व्यवहार कहलाता है ।
इससे ग्रसित व्यक्ति अक्सर अपने विचारों को अप्रिय और शर्मनाक समझता है। किसी व्यवहार को बार-बार करने की आवश्यकता बाध्यता व्यवहार कहलाता है ।

15. एक ध्रुवीय वकार क्या है
एक ध्रुवीय विषाद को मुख्य विषाद भी कहा जाता है। इसके प्रमुख लक्षणों में उदास मनोदशा, भूख, वजन तथा नींद में कमी तथा क्रिया स्तर में भयंकर क्षुब्धता पायी जाती है। ऐसे व्यक्ति किसी कार्य में जल्द थकान महसूस करने लगते हैं, उनका आत्मसंप्रत्यश ऋणात्मक होता है तथा उनमें आत्म-निन्दा की प्रवृत्ति भी अधिक होती है ।

16.दुर्भीति विकार से आप क्या समझते हैं
दुर्भीति विकार एक बहुत ही सामान्य दुश्चिता विकार है, जिसमें व्यक्ति अकारण या अयुक्तिक अथवा विवेकहीन डर अनुभव करता है। इसमें व्यक्ति कुछ खास प्रकार की वस्तुओं या परिस्थितियों से डरना सीख लेता है। जैसे, जिस व्यक्ति में मकड़ा से दुर्भीति होता है वह व्यक्ति वहाँ नहीं जा सकता है जहाँ मकड़ा उपस्थित हो । जबकि मकड़ा एक ऐसा जीव है जो व्यक्ति विशेष के लिए खतरा पैदा नहीं करता है। फिर भी व्यक्ति में दुर्भीति उत्पन्न हो जाने पर सामान्य व्यवहार. को विचलित कर देता है । यद्यपि डरा हुआ व्यक्ति यह जानता है कि उसका डर अयुक्तिक है, फिर भी वह उक्त डर से मुक्त नहीं हो पाता है। इसके कारण व्यक्ति का आंतरिक रूप से चिन्तित होना होता है । व्यक्ति का यह चिन्ता किसी खास वस्तु से अनुकूलित होकर संलग्न हो जाता है । उदाहरणार्थ कुछ महत्त्वपूर्ण दुर्भीतियाँ जैसे बिल्ली से डर एलूरोफोबिया, मकड़ा से डर ऐरेकनोफोबिया, रात्रि से डर नायक्टोफोबिया तथा आग से डर पायरोफोबिया आदि दुर्भीति के उदाहरण हैं ।

खण्ड - 'स' (दीर्घ उत्तरीय प्रश्न )
1.प्राथमिक समूह तथा द्वितीय समूह के बीच अंतर की विवेचना करें
 प्राथमिक एवं द्वितीयक समूह के मध्य एक प्रमुख अंतर यह है कि प्राथमिक समूह पूर्व - विद्यमान होते हैं, जो प्रायः व्यक्ति को प्रदत्त किया जाता है जबकि द्वितीयक समूह में होते हैं जिसमें व्यक्ति अपने पसंद से जुड़ता है। अतः परिवार, जाति एवं धर्म प्राथमिक समूह है जबकि राजनीतिक दल की सदस्यता द्वितीयक समूह का उदाहरण है । प्राथमिक समूह में मुखोन्मुख अंतःक्रिया होती है, सदस्यों में घनिष्ठ शारीरिक समीप्य होता है और उनमें एक उत्साहपूर्वक सांवेगिक बंधन पाया जाता है । प्राथमिक समूह व्यक्ति के प्रकार्यो के लिए महत्त्वपूर्ण होते हैं और विकास की आरंभिक अवस्थाओं में व्यक्ति के मूल्य एवं आदर्श के विकास में इनकी बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है । इसके विपरीत, द्वितीयक समूह वे होते हैं जहाँ सदस्यों में संबंध अधिक निर्वैयक्तिक, अप्रत्यक्ष एवं कम आवृत्ति वाले होते हैं । प्राथमिकता समूह में सीमाएँ कम पारगम्य होती हैं, अर्थात् सदस्यों के पास इसकी सदस्यता वरण या चरण करने का विकल्प नहीं रहता है, विशेष रूप से द्वितीयक समूह की तुलना में जहाँ इसकी सदस्यता को छोड़ना और दूसरे समूह से जुड़ना आसान होता है ।

2. बुद्धि लब्धि या आइ क्यूo तथा संवेगात्मक बुद्धि आई क्यूं o आइक्यू में अंतर क्या है
बुद्धि लब्धि 
(i) बुद्धि लब्धि यह बताती है कि शिशु की 
(ii) बुद्धि लब्धि घट-बढ़ सकती है तथा परिवर्तन 
(iii) बुद्धि लब्धि को प्रभावित करने का एक
(iv) बुद्धि लब्धि सामान्यतया योग्यता की ओर
(v) बुद्धि लब्धि का उपयोग किसी व्यक्ति की
आइ क्यूo 
(i) मानसिक योग्यता का किस गति से विकास हो रहा है। संवेगात्मक बुद्धि संवेगात्मक बुद्धि यह बताती है कि अपने तथा दूसरे व्यक्ति के संवेगों का परिवीक्षण करने, उनमें विभेदन करने की योग्यता तथा प्राप्त सूचना के अनुसार अपने चिन्तन तथा व्यवहारों को निर्देशित करने की योग्यता ही सांवेगिक बुद्धि है ।
(ii) भी होता है ।
(iii) स्रोत वातावरण भी है ।
(iv) संकेत करती है ।
(v) सांवेगिक बुद्धि की मात्रा बताने में नहीं किया जाता है ।
संवेगात्मक बुद्धि घट-बढ़ नहीं सकती है।उसे वातावरण द्वारा प्रभावित नहीं किया जा सकता है । संवेगात्मक वृद्धि सामान्यता योग्यता की ओर संकेत नहीं करती है ।सांवेगिक बुद्धि का उपयोग किसी व्यक्ति की सांवेगिक बुद्धि की मात्रा बताने में किया जाता है ।

3. मानव व्यवहार पर प्रदूषण के प्रभाव का वर्णन करें
 पर्यावरणीय प्रदूषण वायु, जल तथा भूमि-प्रदूषण के रूप में हो सकता है । इन सभी प्रदूषणों का वर्णन क्रमशः निम्नलिखित हैं
(i) मानव व्यवहार पर वायु प्रदूषण का प्रभाव - वायुमंडल में 78.98% नाइट्रोजन, 20.94% ऑक्सीजन तथा 0.03% कार्बनडाइऑक्साइड होता है। यह शुद्ध वायु कहलाती है। लेकिन उद्योगों का धुआँ, धूल के कण, मोटर आदि वाहनों की विषाक्त गैसें, रेडियोधर्मी पदार्थ आदि वायु प्रदूषण के मुख्य कारण हैं, जिसका प्रभाव मानव के स्वास्थ्य तथा व्यवहार पर पर्याप्त पड़ता है । मानव श्वसन क्रिया में ऑक्सीजन लेता है तथा कार्बनडाइऑक्साइड छोड़ता है जो वायुमंडल में मिलती रहती है। आधुनिक युग में वायु को औद्योगिक प्रदूषण ने सर्वाधिक प्रभावित किया है। प्रदूषित वायुमंडल । में अवांछित कार्बन डाइऑक्साइड, कार्बन मोनोऑक्साइड, अधजले हाइड्रोकार्बन के कण आदि मिले रहते हैं। ऐसे वायुमंडल में श्वास लेने से मनुष्य के शरीर में कई प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं । राय एवं कपर के शोध परिणामों से यह ज्ञात होता है कि निम्न प्रदूषित क्षेत्रों के मानवों की अपेक्षा उच्च प्रदूषित क्षेत्रों के मानवों में अत्यधिक उदासीनता, अत्यधिक आक्रामकता एवं पारिवारिक अन्तर्द्वन्द्व, विशेष देखा गया है ।

(ii) मानव व्यवहार पर जल प्रदूषण का प्रभाव - जल प्रदूषण से तात्पर्य जल के भौतिक, रासायनिक और जैविक गुणों में ऐसा परिवर्तन से है कि उसके रूप, गंध और स्वाद से मानव के स्वास्थ्य और कृषि, उद्योग एवं वाणिज्य को हानि पहुँचे, जल प्रदूषण कहलाता है । जल-जीवन के लिए एक बुनियादी जरूरत है। प्रदूषित जल पीने से विभिन्न प्रकार के मानवीय रोग उत्पन्न हो जाते हैं, जिसमें आँत रोग, पीलिया, हैजा, टायफाइड, अतिसार तथा पेचिस प्रमुख हैं । औद्योगिक इकाइयाँ द्वारा जल स्रोतों में फेंके गए पारे, ताँबे, जिंक और अन्य धातुएँ तथा उनके ऑक्साइड अनेक शारीरिक विकृतियों को जन्म देते हैं । इस प्रकार प्रदूषित जल का मानव जीवन पर बुरा असर पड़ता है । इस प्रकार वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण तथा इन दोनों के प्रभाव से भूमि प्रदूषण का प्रभाव मानव व्यवहार पर पड़ता है ।

4. दुश्चिंता अधिकार के विभिन्न प्रकारों का वर्णन करें
 प्रत्येक व्यक्ति को व्याकुलता और भय होते हैं । सामान्यतः भय और आशंका की विस्तृत, अस्पष्ट और अप्रीतिकर भावना को ही दुश्चिंता कहते हैं । दुश्चिंता विकार व्यक्ति में कई लक्षणों के रूप में दिखाई पड़ता है । इन लक्षणों के आधार पर इसे मुख्यतः दो भागों में विभाजित किया गया है :
(i) सामान्यीकृत दुश्चिंता विकार- इसमें लंबे समय तक चलनेवाले अस्पष्ट, अवर्णनीय तथा तीव्र भय होते हैं जो किसी भी विशिष्ट वस्तु के प्रति जुड़े हुए नहीं होते हैं । इनके लक्षणों में भविष्य के प्रति अकिलता एवं अंशिका अत्यधिक सतर्कता, यहाँ तक कि पर्यावरण में किसी भी प्रकार के खतरे की छानबीन शामिल होती है । इसमें पेशीय तनाव भी होता है । जिससे आराम नहीं कर पाता है बेचैन रहता है तथा स्पष्ट रूप से कमजोर और तनावग्रस्त दिखाई देता है ।

(ii) आतंक विकार- इसमें दुश्चिंता के दौर लगातार पड़ते हैं और व्यक्ति तीव्र दहशत का अनुभव करता है । आतंक विकार में कभी विशेष उद्दीपन से संबंधित विचार उत्पन्न होती हैं तो अचानक तीव्र दुश्चिंता अपनी उच्चतम सीमा पर पहुँच जाती है । इस तरह के विचार, अचानक से उत्पन्न होते हैं । इसके नैदार्निक लक्षणों में साँस की कमी, चक्कर आना, कपकपी, दिल तेजी से धड़कना, दम घुटना, जी मिचलना, छाती में दर्द या बेचैनी, सनकी होने का भय, नियंत्रण खोना या मरने का एहसास सम्मिलित होते हैं ।...

5. आतम किसे कहते हैं आत्मसम्मान की विवेचना करें
 आत्म शब्द अंग्रेजी के शब्द Self का हिन्दी रूपान्तर है, जिसका अर्थ है, "What one is अर्थात् जो कुछ कोई होता है । आत्म शब्द का प्रयोग सामान्यतः दो अर्थों में किया जाता है - एक अर्थ में आत्म व्यक्ति के स्वयं के मनोभावों या मनोवृत्तियों का दर्पण होता है । अर्थात् व्यक्ति अपने बारे में जो सोचता है वही आत्म है । अतः आत्म एक वस्तु के रूप में है। दूसरे अर्थ में आत्मा का अभिप्राय कार्य पद्धति से है अर्थात् आत्म को एक प्रक्रिया माना जाता है। इसमें मानसिक प्रक्रियाएँ आती हैं जिसके द्वारा व्यक्ति किसी कार्य का प्रबंधन, समायोजन, चिंतन, स्मरण, योजना का निर्माण आदि करता है । इस प्रकार थोड़े शब्दों में हम कह सकते हैं कि व्यक्ति अपने अस्तित्व की विशेषताओं का अनुभव जिस रूप में करता है तथा जिस रूप में वह व्यक्ति होता है, उसे ही आत्म कहते हैं ।
आत्म-सम्मान या आत्म-गौरव या आत्म-आदर, आत्म सम्प्रत्यक्ष से जुड़ा एक महत्त्वपूर्ण है । व्यक्ति हर क्षण अपने मूल्य तथा अपनी योग्यता के बारे में आकलन करते रहता है। व्यक्ति का अपने बारे में यही मूल्य अथवा महत्त्व की अवधारणा को आत्म सम्मान कहा जाता है। लिण्डग्रेन के अनुसार, 'स्वयं' को जो हम मूल्य प्रदान करते हैं, वही आत्म-सम्मान है । इस प्रकार आत्म-सम्मान से तात्पर्य व्यक्ति को अपने प्रति आदर, मूल्य अथवा सम्मान को बताता है जो कि गर्व तथा आत्मप्रेम के रूप में संबंधित होता है ।
आत्म-सम्मान का स्तर अलग-अलग व्यक्तियों में अलग-अलग पाया जाता है। किसी व्यक्ति में इसका स्तर उच्च होता है तो किसी व्यक्ति में इसका स्तर निम्न होता है। जब व्यक्ति का के प्रति सम्मान निम्न होता है तो वह आत्म-अनादर ढंग से व्यवहार करता है। अतः व्यक्ति का आत्म-सम्मान उसके व्यवहार से भक्त होता है । व्यक्ति अपने आपको जितना महत्त्व देता है उसी अनुपात में उसका आत्म-सम्मान होता है । 

6. सामान्य तथा असामान्य व्यक्ति के व्यवहारों में अलग-अलग विशेषताएँ पायी जाती हैं। इसके बीच कुछ प्रमुख अंतर निम्न हैं
सामान्य व्यवहार
(i) सामान्य व्यवहार का संपर्क वास्तविकता से 
(ii) सामान्य व्यवहार में सुरक्षा की भावना
(iii) व्यावसायिक तथा अन्य परिस्थितियों में अपने आपको सुरक्षित महसूस करता है । 
(iv) सामान्य व्यवहार के कार्यों में सहजता तथा (स्वाभाविकता होती है। वह समयानुसार व्यवहार करने की योग्यता रखता है। साथ-ही-साथ ऐसे व्यक्तियों में संवेगात्मक परिपब्धता रहती है। 
(v) सामान्य व्यवहार का सामाजिक अभियोजन (कुशल होता है। ये सामाजिक मूल्य एवं मर्यादा के अनुकूल दिखलाते हैं। अतः ये समाज में लोकप्रिय भी रहते हैं।
असामान्य व्यवहार
(i) दूसरी ओर असामान्य व्यवहार का संबंध रहता है। वह अपने भौतिक सामाजिक वास्तविकता से विच्छेदित रहता है । वह तथा आंतरिक पर्यावरण के साथ संबंध वास्तविकता से दूर अपनी भिन्न दुनिया में बनायें रखता है। वास्तविकता को वह खोया रहता है। पहचान कर उसके प्रति तटस्थ मनोवृत्ति रखता है।
(ii) सामान्य व्यवहार में सुरक्षा की भावना 
(ii) दूसरी ओर असामान्य व्यवहार अपने आपको बेवजह असुरक्षित महसूस करता है । निहित रहती है। वह सामाजिक, पारिवारिक व्यावसायिक तथा अन्य परिस्थितियों में अपने आपको सुरक्षित महसूस करता है  (iii) सामान्य व्यवहार अपना आत्म प्रबंध करने में सफल रहता है। वह खुद अपनी देखभाल तथा सुरक्षा करता रहता है 
(iv) सामान्य व्यवहार के कार्यों में सहजता तथा (स्वाभाविकता होती है। वह समयानुसार व्यवहार करने की योग्यता रखता है। साथ-ही-साथ ऐसे व्यक्तियों में संवेगात्मक परिपब्धता रहती है। 
(v) सामान्य व्यवहार का सामाजिक अभियोजन (कुशल होता है। ये सामाजिक मूल्य एवं मर्यादा के अनुकूल दिखलाते हैं। अतः ये समाज में लोकप्रिय भी रहते हैं।



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