डॉ. राजेन्द्र प्रसाद (अंग्रेज़ी: Dr.
Rajendra Prasad, जन्म- 3 दिसम्बर,
1884, जीरादेयू, बिहार, मृत्यु- 28 फ़रवरी,
1963, सदाकत आश्रम, पटना) भारत के
प्रथम राष्ट्रपति थे। राजेन्द्र प्रसाद बेहद
प्रतिभाशाली और विद्वान व्यक्ति थे। राजेन्द्र
प्रसाद, भारत के एकमात्र राष्ट्रपति थे जिन्होंने
दो कार्यकालों तक राष्ट्रपति पद पर कार्य
किया।
जन्म :बिहार प्रान्त के एक छोटे से गाँव
जीरादेयू में 3 दिसम्बर, 1884 में राजेन्द्र
प्रसाद का जन्म हुआ था। एक बड़े संयुक्त
परिवार के राजेन्द्र प्रसाद सबसे छोटे सदस्य थे,
इसलिए वह सबके दुलारे थे। राजेन्द्र प्रसाद के
परिवार के सदस्यों के सम्बन्ध गहरे और मृदु
थे। राजेन्द्र प्रसाद को अपनी माता और बड़े
भाई महेन्द्र प्रसाद से बहुत स्नेह था। जीरादेयू
गाँव की आबादी मिश्रित थी। मगर सब लोग
इकटे रहते थे। राजेन्द्र प्रसाद की सबसे पहली
याद अपने हिन्दू और मुसलमान दोस्तों के
साथ 'चिक्का और कबड्डी' खेलने की है।
किशोरावस्था में उन्हें होली के त्योहार का
इंतज़ार रहता था और उसमें उनके मुसलमान
दोस्त भी शामिल रहते थे और मुहर्रम पर हिन्दू
ताज़िये निकालते थे। 'राजेन बाबू' (राजेन्द्र
प्रसाद) को गाँव के मठ में रामायण सुनना और
स्थानीय रामलीला देखना बड़ा अच्छा लगता
था। घर का वातावरण भी ईश्वर पर पूर्ण
विश्वास का था। राजेन्द्र प्रसाद की माता बहुत
बार उन्हें रामायण से कहानियाँ सुनातीं और
भजन भी गाती थी। उनके चरित्र की
दृढ़ता
और उदार दृष्टिकोण की आधारशिला बचपन
में ही रखी गई थी।
विवाह गाँव का जीवन पुरानी
परम्पराओं से भरपूर था। इनमें से एक रिवाज
था- बाल विवाह और परम्परा के अनुसार
राजेन्द्र प्रसाद का विवाह भी केवल बारह वर्ष
की आयु में हो गया था। यह एक विस्तृत
अनुष्ठान था जिसमें वधू के घर पहुँचने में घोड़ों,
बैलगाड़ियों और हाथी के जुलूस को दो दिन
लगे थे। वर एक चांदी की पालकी में, जिसे
चार आदमी उठाते थे, सजे-धजे बैठे थे। रास्ते
में उन्हें एक नदी भी पार करनी थी। बरातियों
को नदी पार कराने के लिए नाव का इस्तेमाल
किया गया। घोड़े और बैलों ने तैरकर नदी पार
की, मगर इकलौते हाथी ने पानी में उतरने से
इंकार कर दिया। परिणाम यह हुआ कि हाथी
को पीछे ही छोड़ना पड़ा और राजेन्द्र प्रसाद के
पिता जी 'महादेव सहाय' को इसका बड़ा दुख
हुआ। अपने गंतव्य स्थान पर पहुँचने से दो
मील पहले उन्होंने किसी अन्य विवाह से
लौटते दो हाथी देखे। उनसे लेनदेन तय हुआ
और परम्परा के अनुसार हाथी फिर विवाह के
जुलूस में शामिल हो गए। किसी तरह से यह
जुलूस मध्य रात्रि को वधू के घर पहुंचा। लम्बी
यात्रा और गर्मी से सब बेहाल हो रहे थे और
वर तो पालकी में ही सो गये थे। बड़ी कठिनाई
से उन्हें विवाह की रस्म के लिए उठाया गया।
वधू, राजवंशी देवी, उन दिनों के रिवाज के
अनुसार पर्दे में ही रहती थी। छुट्टियों में घर
जाने पर अपनी पत्नी को देखने या उससे
बोलने का राजेन्द्र प्रसाद को बहुत ही कम
अवसर मिलता था। राजेन्द्र प्रसाद बाद में
राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल हो गए। तब वह
पत्नी से और भी कम मिल पाते थे। वास्तव में
विवाह के प्रथम पचास वर्षों में शायद पति-
पत्नी पचास महीने ही साथ-साथ रहे होंगे।
राजेन्द्र प्रसाद अपना सारा समय काम में
बिताते और पत्नी बच्चों के साथ जीरादेयू गाँव
में परिवार के अन्य सदस्यों के साथ रहती थीं।
मातृभूमि के लिए समर्पित :राजेन्द्र
प्रसाद प्रतिभाशाली और विद्वान थे और
कलकत्ता के एक योग्य वकील के यहाँ काम
सीख रहे थे। राजेन्द्र प्रसाद का भविष्य एक
सुंदर सपने की तरह था। राजेन्द्र प्रसाद का
परिवार उनसे कई आशायें लगाये बैठा था।
वास्तव में राजेन्द्र प्रसाद के परिवार को उन पर
गर्व था। लेकिन राजेन्द्र प्रसाद का मन इन सब
में नहीं था। राजेन्द्र प्रसाद केवल धन और
सुविधायें पाने के लिए आगे पढ़ना नहीं चाहते
थे। एकाएक राजेन्द्र प्रसाद की दृष्टि में इन
चीज़ों का कोई मूल्य नहीं रह गया था। राष्ट्रीय
नेता गोखले के शब्द राजेन्द्र प्रसाद के कानों में
बार-बार गूंज उठते थे।राजेन्द्र प्रसाद की
मातृभूमि विदेशी शासन में जकड़ी हुई थी।
राजेन्द्र प्रसाद उसकी पुकार को कैसे अनसुनी
कर सकते थे। लेकिन राजेन्द्र प्रसाद यह भी
जानते थे कि एक तरफ देश और दूसरी ओर
परिवार की निष्ठा उन्हें भिन्न-भिन्न दिशाओं में
खींच रही थी। राजेन्द्र प्रसाद का परिवार यह
नहीं चाहता था कि वह अपना कार्य छोड़कर
'राष्ट्रीय आंदोलन' में भाग लें क्योंकि उसके
लिए पूरे समर्पण की आवश्यकता होती है।
राजेन्द्र प्रसाद को अपना रास्ता स्वयं चुनना
पड़ेगा। यह उलझन मानों उनकी आत्मा को
झकझोर रही थी।राजेन्द्र प्रसाद ने रात ख़त्म
होते-होते मन ही मन कुछ तय कर लिया था।
राजेन्द्र प्रसाद स्वार्थी बनकर अपने परिवार को
सम्भालने का पूरा भार अपने बड़े भाई पर नहीं
डाल सकते थे। राजेन्द्र प्रसाद के पिता का
देहान्त हो चुका था।
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