आदरणीय उपस्थिति गुरु जी एवं साथियों तथा उपस्थित अतिथि गण आज मैं स्वतंत्र दिवस के शुभ अवसर पर देश के महान वीर महात्मा गांधी जी के बारे में कुछ कहने जा रहा हूं
स्वतंत्रता दिलाने में सबसे बड़ी भूमिका निभाई महात्मा
गांधी के नाम से मशहूर मोहनदास करमचंद
गांधी भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के एक
प्रमुख राजनैतिक नेता थे। सत्याग्रह और
अहिंसा के सिद्धान्तो पर चलकर उन्होंने भारत
को आजादी दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका
निभाई। उनके इन सिद्धांतों ने पूरी दुनिया में
लोगों को नागरिक अधिकारों एवं स्वतन्त्रता
आन्दोलन के लिये प्रेरित किया। उन्हें भारत
का राष्ट्रपिता भी कहा जाता है। सुभाष चन्द्र
बोस ने वर्ष 1944 में रंगून रेडियो से गान्धी जी
के नाम जारी प्रसारण में उन्हें राष्ट्रपिता कहकर
सम्बोधित किया था।महात्मा गाँधी समुच्च
मानव जाति के लिए मिशाल हैं। उन्होंने हर
परिस्थिति में अहिंसा और सत्य का पालन
किया और लोगों से भी इनका पालन करने के
लिये कहा। उन्होंने अपना जीवन सदाचार में
गुजारा। वह सदैव परम्परागत भारतीय
पोशाक धोती व सूत से बनी शाल पहनते थे।
सदैव शाकाहारी भोजन खाने वाले इस
महापुरुष ने आत्मशुद्धि के लिये कई बार लम्बे
उपवास भी रक्खे।सन 1915 में भारत वापस
आने से पहले गान्धी ने एक प्रवासी वकील के
रूप में दक्षिण अफ्रीका में भारतीय समुदाय के
लोगों के नागरिक अधिकारों के लिये संघर्ष
किया। भारत आकर उन्होंने समूचे देश का
भ्रमण किया और किसानों, मजदूरों और
श्रमिकों को भारी भूमि कर और भेदभाव के
विरुद्ध संघर्ष करने के लिये एकजुट किया।
सन 1921 में उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस
की बागडोर संभाली और अपने कार्यों से देश
के राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक
परिदृश्य को प्रभावित किया। उन्होंने सन
1930 में नमक सत्याग्रह और इसके बाद
1942 में भारत छोड़ो आन्दोलन से खासी
प्रसिद्धि प्राप्त की। भारत के स्वतंत्रता संघर्ष के
दौरान कई मौकों पर गाँधी जी कई वर्षों तक
उन्हें जेल में भी रहे।
प्रारंभिक जीवन : मोहनदास करमचन्द
गान्धी का जन्म भारत में गुजरात के एक
तटीय शहर पोरबंदर में 2 अक्टूबर सन् 1869
को हुआ था। उनके पिता करमचन्द गान्धी
ब्रिटिश राज के समय काठियावाड़ की एक
छोटी सी रियासत (पोरबंदर) के दीवान थे।
मोहनदास की माता पुतलीबाई परनामी वैश्य
समुदाय से ताल्लुक रखती थीं और अत्यधिक
धार्मिक प्रवित्ति की थीं जिसका प्रभाव युवा
मोहनदास पड़ा और इन्ही मूल्यों ने आगे
चलकर उनके जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका
निभायी। वह नियमित रूप से व्रत रखती थीं
और परिवार में किसी के बीमार पड़ने पर
उसकी सेवा सुश्रुषा में दिन-रात एक कर देती
थीं। इस प्रकार मोहनदास ने स्वाभाविक रूप
से अहिंसा, शाकाहार, आत्मशुद्धि के लिए व्रत
और विभिन्न धर्मों और पंथों को मानने वालों
के बीच परस्पर सहिष्णुता को अपनाया।सन
1883 में साढे 13 साल की उम्र में ही उनका
विवाह 14 साल की कस्तूरबा से करा दिया
गया। जब मोहनदास 15 वर्ष के थे तब इनकी
पहली सन्तान ने जन्म लिया लेकिन वह केवल
कुछ दिन ही जीवित रही। उनके पिता
करमचन्द गाँधी भी इसी साल (1885) में चल
बसे। बाद में मोहनदास और कस्तूरबा के चार
सन्तान हुईं हरीलाल गान्धी (1888),
मणिलाल गान्धी (1892), रामदास गान्धी
(1897) और देवदास गांधी (1900)।उनकी
मिडिल
स्कूल
की शिक्षा पोरबंदर में और हाई
स्कूल की शिक्षा राजकोट में हुई। शैक्षणिक
स्तर पर मोहनदास एक औसत छात्र ही रहे।
सन 1887 में उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा
अहमदाबाद से उत्तीर्ण की। इसके बाद
मोहनदास ने भावनगर के शामलदास कॉलेज
में दाखिला लिया पर ख़राब स्वास्थ्य और गृह
वियोग के कारण वह अप्रसन्न ही रहे और
कॉलेज छोड़कर पोरबंदर वापस चले गए।
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विदेश में शिक्षा और वकालत :
मोहनदास अपने परिवार में सबसे ज्यादा पढ़े-
लिखे थे इसलिए उनके परिवार वाले ऐसा
मानते थे कि वह अपने पिता और चाचा का
उत्तराधिकारी (दीवान) बन सकते थे। उनके
एक परिवारक मित्र मावजी दवे ने ऐसी सलाह
दी कि एक बार मोहनदास लन्दन से बैरिस्टर
बन जाएँ तो उनको आसानी से दीवान की
पदवी मिल सकती थी। उनकी माता
पुतलीबाई और परिवार के अन्य सदस्यों ने
उनके विदेश जाने के विचार का विरोध किया
पर मोहनदास के आस्वासन पर राज़ी हो गए।
वर्ष 1888 में मोहनदास यूनिवर्सिटी कॉलेज
लन्दन में कानून की पढाई करने और बैरिस्टर
बनने के लिये इंग्लैंड चले गये। अपने माँ को
दिए गए वचन के अनुसार ही उन्होंने लन्दन में
अपना वक़्त गुजारा। वहां उन्हें शाकाहारी
खाने से सम्बंधित बहुत कठिनाई हुई और
शुरूआती दिनो में कई बार भूखे ही रहना
पड़ता था। धीरे-धीरे उन्होंने शाकाहारी भोजन
वाले रेस्टोरेंट्स के बारे में पता लगा लिया।
इसके बाद उन्होंने वेजीटेरियन सोसाइटी की
सदस्यता भी ग्रहण कर ली।
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