1. सुरक्षा परिषद् के गठन की विवेचना करें ।
सुरक्षा परिषद् ( Security Council) सुरक्षा परिषद् संयुक्त राष्ट्र की कार्यपालिका के समान है । इसके 15 सदस्य होते हैं जिनमें 5 स्थायी सदस्य हैं- अमेरिका, इंग्लैंड, फ्रांस, चीन और रूस । पहले सोवियत संघ इसका स्थायी सदस्य था परंतु जनवरी, 1992 में सोवियत संघ की समाप्ति के बाद यह स्थान रूसी गणराज्य को दे दिया गया है इसके अन्य 10 सदस्य महासभा के द्वारा 2 वर्ष के लिए चुने जाते हैं ।
अथवा
क्या आतंकवाद विश्व सुरक्षा के लिए खतरा है ?
हाँ, आतंकवाद विश्व सुरक्षा के लिए खतरा है। आतंकवाद आज मानवीय हिंसा का विभत्सव रूप है । विशेष रूप से इस्लामी आतंकवाद का विश्व के कोने-कोने में प्रसार हो चुका है। चाहे शक्तिशाली देश अमेरिका हो अथवा अन्य देश जैसे भारत, अफगानिस्तान, रूस, चीन, पाकिस्तान कोई भी इससे अछूता नहीं है। मानव की सुरक्षा आज विश्व समुदाय के लिए एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न बन गया है। विश्व समुदाय आतंकवाद से मुकाबला एक दूसरे से मिलजुल कर ही कर सकते हैं ।
2.मंडल आयोज की कुल सिफारिशों का वर्णन करें ।
1978 में जनता दल की सरकार ने बी०पी० मंडल की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन किया । जो मंडल आयोग के नाम से जाना जाता है। आयोग का वादी था। पिछड़े वर्गों की पहचान करना । इन वर्गों की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक स्थिति का पता लगाना तथा इन वर्गों की स्थिति में सुधार हेतु उपाय बताना । आयोग ने दिसम्बर 1980 की अपनी सिफारिश पेश किया। जिसके अंतर्गत मुख्य सिफारिशों में पिछड़ी जातियों की सरकारी नौकरी एवं शिक्षण संस्थाओं में 27 प्रतिशत आरक्षण और भूमि सुधार तथा अगस्त 1990 में राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार ने मंडल आयोग की मुख्य सिफारिशों को लागू किया ।
3. सोवियत संगठन का विघटन क्यों हुआ ?
मिखाइल गोर्बाचेव ने रूस की व्यवस्था को सुधारना चाहा। वे 1980 के दशक के मध्य में सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव बने । पश्चिम के देशों में सूचना और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में क्रांति हो रही थी और सोवियत संघ को इसकी बराबरी में लाने के लिए सुधार जरूरी हो गए थे । गोर्बाचेब ने पश्चिम के देशों के साथ संबंधों को सामान्य बनाने, सोवियत संघ को लोकतांत्रिक रूप देने और वहाँ सुधार करने का फैसला किया। इस फैसले की कुछ ऐसी भी परिणतियाँ रहीं जिनकी किसी को कोई अंदाजा नहीं था । पूर्वी यूरोप के देश सोवियत खेमे के हिस्से थे । इन देशों की जनता ने अपनी सरकारों और सोवियत नियंत्रण का विरोध करना शुरू कर दिया । गोर्बाचेव के शासक रहते सोवियत संघ ने ऐसी गड़बड़ियों में उस तरह का हस्तक्षेप नहीं किया जैसा अतीत में होता था । पूर्वी यूरोप की साम्यवादी सरकारें एक के बाद एक गिर गईं ।
4. विश्व व्यापार संगठन क्या है ?
विश्व व्यापर संगठन एक अंतर्राष्ट्रीय संगठन है जो वैश्विक व्यापार के लिए निमय निर्धारित करता है । इस संगठन की स्थापना 1995 ई० में व्यापार तथा सीमा शुल्क पर सामान्य समझौता (गैट) के उत्तराधिकारी के रूप में हुआ जो द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद गठित किया गया था । इसके सदस्य .देशों की संख्या 150 है । इसका हर दो वर्ष बाद सम्मेलन होता है जिसमें व्यापार संबंधी चर्चाएँ की जाती हैं । निर्णय बहुमत के आधार पर लिए जाते हैं, जो सभी देशों के लिए बाध्यकारी है । इसका अपना न्यायाधीकरण है जिसमें देशों के बीच व्यापार संबंधी विवादों का निपटारा होता है ।
अथवा
क्षेत्रीय संगठन क्या है ?
1967 ई० के चुनाव के बाद क्षेत्रीय दलों की भूमिका बढ़ने लगी । 1985 ई० में लोकसभा में विपक्ष के रूप में सबसे बड़ा दल एक क्षेत्रीय दल तेलगु देशम था । 1989 ई० के बाद गठबंधन राजनीति के विकास के साथ क्षेत्रीय दलों की राष्ट्रीय राजनीति में विशिष्ट भूमिका हो गई तेलगु देशम तथा शिवसेना जैसे क्षेत्रीय दलों के प्रतिनिधि को लोकसभा का अध्यक्ष पद तक प्राप्त हुआ ।
5.विश्व बैंक के प्रमुख कार्यों का वर्णन करें ।
द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् विश्व के विभिन्न देशों को पर्याप्त क्षति हुई । इन देशों ने अपने पुनरुद्धार हेतु 1965 ई० में एक विश्व बैंक की स्थापना की । इसका कार्यालय अमेरिका की राजधानी वाशिंगटन डी०सी० में है । इस बैंक के कार्य हैं
(i) विकासशील देशों को वित्तीय सहायता व ऋण देना ।
(ii) उसके रचनात्मक आर्थिक विकास के लिए तकनीकी सहायता देना ।
(iii) अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के क्षेत्र में संतुलन बनाए रखना, जिससे सहायता प्राप्त देश अपना विकास अबाध गति से चला सके ।
(iv) पर्यावरण सुरक्षा, जिसमें प्रदूषण से संबंधित सभी नियमों का निर्माण और उसे लागू करना भी इसके अधिकार क्षेत्र में आते हैं ।
6. दल बदल से आप क्या समझते हैं ?
जब कोई सांसद या विधायक अपनी पार्टी छोड़कर किसी अन्य दल में शामिल हो जाता है या अपनी अलग पार्टी बना लेता है तथा उसके ऐसे काम से कोई सरकार बनती या गिर जाती है तो उसे राजनीतिक दल-बदल का कृत्य समझा जाता है ।
7. भारत के गुट निरपेक्षता नीति क्यों अपनाई ?
शीत युद्ध के दौरान संसार सामान्यतः दो भागों में विभाजित हो गया संयुक्त राज्य अमेरिका वाला पूँजीवादी गुट और सोवियत संघ के नेतृत्व वाला समाजवादी गुट । इस स्थिति में एशिया व अफ्रीका के व स्वतन्त्र राष्ट्रों ने अपनी राजनीतिक स्वतन्त्रता बनाये रखने व दोनों महाशक्तियों से आर्थिक तथा दैनिक लाभों को प्राप्त करने के लिए एक नवीन आन्दोलन को जन्म दिया जो गुट-निरपेक्ष आन्दोलन कहलाया। भारत ने गुट निरपेक्ष नीति इसलिए अपनाई क्योंकि इसमें विश्व के कई देशों दाव मिलकर एक साथ कार्य करने की नीति बनाई ।
अथवा, प्रत्येक राष्ट्र की विदेश नीति का उद्देश्य राष्ट्रीय हितों की पूर्ति करना होता है । अतः भारत की विदेश नीति का भी प्रमुख लक्ष्य अथवा उद्देश्य राष्ट्रीय हितों की पूर्ति व विकास करना है । भारतीय विदेश नीति के प्रमुख लक्ष्य निम्नलिखित हैंतथा आपसी मतभेदों को शांतिपूर्ण समाधान
(i) अन्तर्राष्ट्रीय शांति व सुरक्षा का समर्थन करना का प्रयत्न करना ।
(ii) शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व तथा पंचशील के आदशों को बढ़ावा देना । साथ मैत्रीपूर्ण
(iii) विश्व के सभी राष्ट्रों विशेष तौर से पड़ोसी राष्ट्रों के संबंध बनाए रखना ।
(iv) साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद, नस्लवाद, पृथकतावाद तथा सैन्यवाद का विरोध करना ।
(v) स्वतंत्रता आंदोलनों, लोकतांत्रिक संघर्षों व आत्मनिर्धारण के संघर्षों का समर्थन करना ।
8. नर्मदा बचाओ आन्दोलन' के क्या उद्देश्य थे ?
लोगों द्वारा 2003 में स्वीकृत राष्ट्रीय पुनर्वास नीति को नर्मदा बचाओं जैसे सामाजिक आंदोलन की उपलब्धि के रूप में देखा जा सकता है। परंतु सफलता के साथ ही नर्मदा बचाओ आंदोलन को बाँध के निर्माण पर रोक लगाने की माँग उठाने पर तीखा विरोध भी झेलना पड़ा । जंगल वहाँ की
अथवा,
चिपको आन्दोलन' के परिणामों की विवेचना करें ।
चिपको आंदोलन एक पर्यावरण आंदोलन था । हिमालय क्षेत्र में अधिकांश जनसंख्या की आजीविका का स्रोत रहा है । ठेकेदार उन क्षेत्रों में रहने वाले स्त्री-पुरुष का आर्थिक शोषण करते थे। हिमालय क्षेत्र की महिलाओं ने अपने क्षेत्र में सदाबहार पेड़ों की बचाने के लिए यह आंदोलन किया था । इस आन्दोलन (चिपको) का उद्देश्य यह था कि पेड़ों को अंधाधुध कटाई नहीं किया जाय । इसके फलस्वरूप सरकारी समितियाँ बनी और एक हजार मीटर से अधिक की ऊँचाई पर 15 वर्षों के लिए वृक्ष की कटाई पर रोक लगा दी गई । इस आंदोलन से प्रेरणा लेकर देश कई हिस्सों में इन तरह के आंदोलन चलाए गए । खासतौर से कर्नाटक में वृक्षों की कटाई के विरोध में एपिको आंदोलन चलाया गया । वह आंदोलन अहिंसक ढंग से चलाया गया, जिस गाँधीवादी संघर्ष, का प्रतिरूप माना गया ।
9.पर्यावरण संरक्षण के प्रयासों को स्पष्ट करें ।
पर्यावरण को सुरक्षित व प्रदूषण मुक्त रखना अत्यन्त जरूरी है । इसके लिए निम्न प्रयास किये गये हैं
(i) विषैली गैसों व कार्बनडाईऑक्साइड के विसर्जन की मात्रा घटाई जाये, अधिक हरियाली लगाई जाये तो ऐसी गैसों को रोक लेती है ।
(ii) वृक्षों की अंधाधुंध कटाई रोक दी जाये ।
(iii) नदियों में जहरीला या तेजाबी पानी न छोड़ा जाये क्योंकि इससे पेयजल दूषित होता है और मछलियों व कछुओं की हत्या हो जाती है ।
(iv) सभी प्रकार के जीव-जन्तुओं तथा पेड़-पौधों को सुरक्षित रखा जाये क्योंकि इसी से प्राकृतिक सन्तुलन बना रह सकता है ।
अथवा,
ओजोन छिद्र का वर्णन करें ।
वायुमंडल की सबसे उपरी परत जिसे ओजोन परत के नाम से जानते हैं इसका कार्य सूर्य से निकले वाली 'अल्ट्रावॉयलेट किरण' को सीधे पृथ्वी पर आने से रोकना है क्योंकि उसमें विनाशक किरणें । सूर्य से सीधे पृथ्वी पर आ सके। लेकिन पृथ्वी पर काफी प्रदूषण होने के कारण वायुमडल भी दूषित होने लगा है और ओजोन परत में छिद्र होने लगा है जिससे सूर्य की किरणें सीधे पृथ्वी के कई हिस्से में पड़े लगी है। यह काफी नुकसान दायक किरणें हैं । ओजोन परत में कई जगह छिद्र होने लगे हैं। इसके बचाव के लिए भी कई कदम उठाये जा रहे हैं ।
10. वैश्वीकरण क्या है ?
वैश्वीकरण वह प्रक्रम है जिसमें हम अपने निर्णयों को दुनिया के एक क्षेत्र में क्रियान्वित करते हैं, जो दुनिया के दूरवर्ती क्षेत्र में व्यक्तियों और समुदायों के लिए महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं । 20वीं शताब्दी के अंतिम चरण में भूमडलीय करण की प्रक्रिया प्रारंभ हुई ।
अथवा,
वैश्वीकरण के कौन-कौन से लाभ हैं ?
विभिन्न देशों और समाजों पर वैश्वीकरण का प्रभाव विषम रहा है । इसके कई लाभ
(i) यह विकासशील देशों की प्रतियोगी क्षमता को बढ़ाता है।
(ii) वैश्वीकरण नई तकनीक और नए बाजार में प्रवेश का मार्ग खोलता है
(iii) यह उपभोक्ताओं की विभिन्न प्रकार की वस्तुएँ और सेवाएँ कम कीमत पर उपलब्ध कराता ।
इस प्रकार से सूचना ओर संचार क्षेत्र में हुई प्रगति ने लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में तेजी ला दिया है। कारण यह है कि सरकार जो कुछ भी करती है वह हर प्रकार से पारदर्शी बन जाता है । वैश्वीकरण विदेशी पूँजी निवेश का मार्ग खोलता है । यह विकासशील देशों के लिए अति आवश्यक है
(दीर्घ उत्तरीय प्रश्न )
1. क्या अमेरिकी बर्चस्व समकालीन विश्व राजनीति में स्थायी है ?
संयुक्त राज्य अमेरिका के बढ़ते वर्चस्व ने विचारकों को सोचने के लिए विवश कर दिया है । उनके समक्ष अनेक प्रश्न आ रहे हैं। जैसे कि कब तक चलेगा अमेरिकी वर्चस्व ? इस वर्चस्व से कैसे बचा जा सकता है ? जाहिर तौर पर ये सवाल हमारे वक्त के सबसे झंझावती सवाल हैं । इतिहास से हमें इन सवालों के जवाब के कुछ सुराग मिलते हैं लेकिन बात यहाँ इतिहास की नहीं वर्तमान और भविष्य की हो रही है । अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में ऐसी चीजें गिनी-चुनी ही हैं जो किसी देश को सैन्यशक्ति पर लगाम कस सके । हर देश में सरकार होती है लेकिन विश्व-सरकार जैसी कोई चीज नहीं होती ।
अंतर्राष्ट्रीय राजनीति दरअसल 'सरकार विहीन राजनीति' है। कुछ कायदे-कानून जरूर हैं जो युद्ध पर कुछ अंकुश रखते हैं लेकिन ये कायदे-कानून युद्ध को रोक नहीं सकते। फिर, शायद ही कोई देश होग जो अपनी सुरक्षा को अंतर्राष्ट्रीय कानूनों के हवाले कर दे । तो क्या इन बातों से यह समझा जाए कि न तो वर्चस्व से कोई छुटकारा है और न ही युद्ध से ?
फिलहाल हमें यह बात मान लेनी चाहिए कि कोई भी देश अमेरिकी सैन्यशक्ति के जोड़ का मौजूद नहीं है । भारत, चीन और रूस जैसे बड़े देशों में अमेरिकी वर्चस्व को चुनौती दे पानी की संभावना है लेकिन इन देशों के बीच आपसी मतभेद हैं और इन विभेदों के रहते उनका अमेरिका के विरुद्ध कोई गठबंधन नहीं हो सकता ।
कुछ लोगों का तर्क है कि वर्चस्वजनित अवसरों के लाभ उठाने की रणनीति ज्यादा संगत है
उदाहरण के लिए, आर्थिक वृद्धि दर को ऊँचा करने के लिए व्यापार को बढ़ावा, प्रौद्योगिकी का हस्तांतरण और निवेश जरूरी है और अमेरिका के साथ मिलकर काम करने से इसमें आसानी होगी न कि उसका विरोध करने । ऐसे में सुझाव दिया जाता है कि सबसे ताकतवर देश के विरुद्ध जाने के बजाय उसके वर्चस्व तंत्र में रहते हुए अवसरों का फायदा उठाना कहीं उचित रणनीति है । इसे 'बैंडवैगन' अथवा 'जैसी बहे बयार पीठ तब तैसी दीजै' की रणनीति कहते हैं ।
अथवा
सार्क (SAARC) की भूमिका पर प्रकाश डालें ।
दक्षेस (सार्क) की भूमिका (The role of SAARC) (क) अनेक संघर्षों के बावजूद दक्षिण एशिया (या दक्षेस अथवा सार्क) के देश परस्पर में मित्रवत् सम्बन्ध तथा सहयोग के महत्त्व को पहचानते हैं । शाति के प्रयास द्विपक्षीय भी हुए हैं और क्षेत्रीय स्तर पर भी। दक्षेस (साउथ एशियन एसोशियेशन फॉर रीजनल कोपरेशन (SAARC) दक्षिण एशियाई देशों द्वारा बहुस्तरीय साधनों से आपस में सहयोग करने की दिशा में उठाया गया बड़ा कदम है। इसकी शुरुआत 1985 में हुई । दुर्भाग्य से विभेदों की मौजूदगी के कारण दक्षेस को ज्यादा सफलता नहीं मिली है । दक्षेस के सदस्य देशों ने सन् 2002 में 'दक्षिण एशियाई मुक्त व्यापार क्षेत्र समझौते' ( साउथ एशियन फ्री ट्रेड एरिया एग्रीमेंट (SAFTA) पर दस्तखत किये । इसमें पूरे दक्षिण एशिया के लिए मुक्त व्यापार क्षेत्र बनाने का वायदा है । (ख) यदि दक्षिण एशिया के सभी देश अपनी सीमारेखा के आर-पार मुक्त व्यापार पर सहमत हो जाएँ तो इस क्षेत्र में शांति और सहयोग के एक नए अध्याय की शुरुआत हो सकती है । दक्षिण एशिया मुक्त व्यापार क्षेत्र समझौते (SAFTA) के पीछे यही भावना काम कर रही है। इस समझौते पर 2004 में हस्ताक्षर हुए और यह समझौता 1 जनवरी, 2006 को प्रभावी हो गया । इस समझौते का लक्ष्य है कि इन देशों के बीच आपसी व्यापार में लगने वाले सीमा शुल्क को 2007 तक बीस प्रतिशत कम कर दिया जाए ।
(II) सीमाएँ (Limitations) (क) कुछ छोटे देश मानते हैं कि 'साफ्टा' की ओट लेकर भारत उनके बाजार में सेंध मारना चाहता है और व्यावसायिक उद्यम तथा व्यावसायिक मौजूदगी के जरिये उनके समाज और राजनीति पर असर डालना चाहता है ।
(ख) भारत सोचता है कि 'साफ्टा' से इस क्षेत्र के हर देश को फायदा होगा और क्षेत्र में व्यापार बढ़ने से राजनीतिक मसलों पर सहयोग ज्यादा बेहतर होगा । मुक्त
(III) सुझाव ( Suggestions) - दक्षेस (सार्क) के सदस्य देशों में भारत आकार तथा शक्ति के आधार पर सबसे महत्त्वपूर्ण देश है। भारत में कुछ लोगों का मानना है कि 'साफ्टा' के लिए परेशान होने की जरूरत नहीं क्योंकि भारत भूटान, नेपाल और श्रीलंका से पहले ही द्विपक्षीय व्यापार समझौता कर चुका है । वह इसी तरह की शक्तियाँ शेष तीनों देशों या दक्षिण एशिया के अन्य तीन देशों (अफगानिस्तान, म्यांमार, चीन) से भी कर सकता है । संधि एवं मित्रता का आधार समानता (या समान स्तर) होना चाहिए ।
2. भारत की परमाणु नीति की विवेचना करें ।
भारत की परमाणु नीति (Nuclear policy of India)— भारत के 1974 के मई में परमाणु परीक्षण किया । तेज गति से आधुनिक भारत के निर्माण के लिए नेहरू ने हमेशा विज्ञान और प्रौद्योगिकी पर अपना विश्वास जताया था । नेहरू की औद्योगिकरण की नीति का एक महत्त्वपूर्ण घटक–परमाणु कार्यक्रम था । इसकी शुरुआत 1940 के दशक के अंतिम सालों में होमी जहाँगीर भाभा के निर्देशन में हो चुकी थी । भारत शांतिपूर्ण उद्देश्यों में इस्तेमाल के लिए अणु ऊर्जा बनाना चाहता था। नेहरू परमाणु हथियारों के खिलाफ थे । उन्होंने महाशक्तियों पर व्यापक परमाणु निशस्त्रीकरण के लिए जोर दिया । बहरहाल, परमाणु आयुधों में बढ़ोत्तरी होती रही । साम्यवादी शासन वाले चीन ने 1964 के अक्तूबर में परमाणु परीक्षण किया। अणुशक्ति संपन्न बिरादरी यानी संयुक्त राज्य अमेरीका, सोवियत संघ, ब्रिटेन, फ्रांस और चीन ने, जो संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद् के स्थायी सदस्य भी थे, दुनिया के अन्य देशों पर 1968 की परमाणु अप्रसार संधि को थोपना चाहा । भारत हमेशा से इस संधि को भेदभावपूर्ण मानता आया था । भारत ने इस पर् दस्तखत करने से इंकार कर दिया था। भारत ने जब अपना पहला परमाणु परीक्षण किया तो इसे उसने शांतिपूर्ण परीक्षण करार दिया। भारत का कहना था कि वह अणुशक्ति को सिर्फ शांतिपूर्ण उद्देश्यों में इस्तेमाल करने की अपनी नीति के प्रति दृढ़ संकल्प है।
अथवा
वर्तमान समय के संदर्भ में भारत और चीन के सम्बन्धों की विवेचना करें ।
अथवा, चीन के साथ भारत का संबंध ( India's Relations with China) — ।
(i) प्रस्तावना (Introduction ) – पश्चिमी साम्राज्यवाद के उदय से पहले भारत और चीन एशिया की महाशक्ति थे । चीन का अपने आसपास के इलाकों पर भी काफी प्रभाव था और आसपास के छोटे देश इसके प्रभुत्व को मानकर और कुछ नजराना देकर चैन से रहा करते थे । चीनी राजवंशों के लम्बे शासन में मंगोलिया, कोरिया, हिन्द - चीन के कुछ इलाके और तिब्बत इसकी अधीनता मानते रहे थे । भारत के भी अनेक राजवंशों और साम्राज्यों का प्रभाव उनके अपने राज्य से बाहर भी रहा भारत हो या चीन, इनका प्रभाव सिर्फ राजनैतिक नहीं था- यह आर्थिक, धार्मिक और सांस्कृतिक भी था । पर चीन और भारत अपने प्रभाव क्षेत्रों के मामलें में कभी नहीं टकराए थे । इसी कारण दोनों के बीच राजनैतिक और सांस्कृतिक प्रत्यक्ष सम्बन्ध सीमित ही थे। परिणाम यह हुआ कि दोनों एक-दूसरे को ज्यादा अच्छी तरह से नहीं जान सकें और जब बीसवीं सदी में दोनों एक-दूसरे से टकराए से तो दोनों को ही एक-दूसरे के प्रति विदेशी नीति विकसित करने में मुश्किलें आई । था
(ii) ब्रिटिश शासन के उपरांत भारत-चीन संबंध (After British rule India - China relations) अंग्रेजी राज से भारत के आजाद होने और चीन द्वारा विदेशी शक्तियों को निकाल बाहर करने के बाद यह उम्मीद जगी थी कि ये दोनों मुल्क साथ आकर विकासशील दुनिया और खास तौर से एशिया के भविष्य को तय करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएँगे । कुछ समय के लिए हिंदी - चीनी भाई-भाई नारा भी लोकप्रिय हुआ । सीमा विवाद पर चले सैन्य संघर्ष ने इस उम्मीद को समाप्त कर लिया । आजादी के तत्काल बाद 1950 में चीन द्वारा तिब्बत को हड़पने तथा भारत-चीन सीमा पर बस्तियाँ बनाने के फैसले से दोनों देशों के बीच संबंध एकदम गड़बड़ हो गए । भारत और चीन दोनों मुल्क अरुणाचल प्रदेश के कुछ इलाकों और लद्दाख के अक्साई चीन क्षेत्र पर प्रतिस्पर्धा दावों के चलने 1962 ई० में लड़ पड़े ।
(iii) भारत-चीन युद्ध और उसके बाद (India-China War and later on ) – 1962 ई० के युद्ध में भारत को सैनिक पराजय झेलनी पड़ी और भारत-चीन सम्बन्धों पर इसका दीर्घकालिक असर हुआ । 1976 तक दोनों देशों के बीच कूटनीतिक सम्न्ध समाप्त होते रहे । इसके बाद धीरे-धीरे दोनों के बीच सम्बन्धों में सुधार शुरू हुआ । 1970 के दशक के उत्तरार्द्ध में चीन का का राजनीतिक नेतृत्व बदला । चीन की नीति में भी अब वैचारिक मुद्दों की जगह व्यावहारिक मुद्दे प्रमुख होते गए । इसलिए चीन भारत के साथ सम्बन्ध सुधारने के लिए विवादास्पद मामलों को छोड़ने को तैयार हो गया । 1981 ई० सीमा विवादों को दूर करने के लिए वार्ताओं की श्रृंखला भी शुरू की गई ।
(iv) भारत चीन संबंध राजीव गाँधी के काल में (India-China relation period) - Rajiv Gandhi Period)– दिसम्बर 1988 ई० में राजीव गाँधी द्वारा चीन का दौरा करने से भारत-चीन सम्बन्ध को सुधारने के प्रयासों को बढ़ावा मिला। इसके बाद से दोनों देशों ने टकराव टालने और सीमा पर शांति और यथास्थिति बनाए रखने के उपायों की शुरूआत की है। दोनों देशों ने सांस्कृतिक, आदान-प्रदान, विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में परस्पर सहयोग और व्यापार के लिए सीमा पर चार पोस्ट खोलने के समझौते भी किए हैं ।
(v) भारत-चीन संबंध शीत युद्ध के बाद (Indo-China relation after Cold War)– शीत युद्ध की समाप्ति के बाद से भारत चीन सम्बन्धों में महत्त्वपूर्ण बदलाव आया है। अब इनके संबंधों का रणनीतिक हीं नहीं, आर्थिक पहलू भी है। दोनों ही खुद को विश्व राजनीति की उभरती शक्ति मानते हैं और दोनों ही एशिया की अर्थव्यवस्था और राजनीति में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाना चाहेंगे। (vi) भारत-चीन के आर्थिक संबंध, १९९२ से ( Since 1992 India Sino-Economic relation) – 1999 से भारत और चीन के बीच व्यापार सालाना 30 फीसदी की दर से बढ़ रहा है। इससे चीन के साथ संबंधों में नयी गर्मजोशी आयी है। चीन और भारत के बीच 1992 ई० में 33 करोड़ 80 लाख डॉलर का द्विपक्षीय व्यापार हुआ था जो 2006 ई० में बढ़कर 18 अरब डॉलर का हो चुका है । हाल में, दोनों देश ऐसे मसलों पर भी सहयोग करने के लिए राजी हुए हैं। जिनसे दोनों के विभेद पैदा हो सकते थे, जैसे-विदेशों में ऊर्जा-सौदा हासिल करने का मसला । वैविश्क धरातल पर भारत और चीन ने विश्व व्यापार संगठन जैसे अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक संगठनों के संबंध में एक जैसी नीतियाँ अपनायी हैं।
(vii) सैनिक उतार-चढ़ाव एवं कूटनीतिक संबंध (Military development and diplomatic relations) – 1998 ई० में भारत के परमाणु हथियार परीक्षण को कुछ लोगों ने चीन से खतरे के मद्देनजर उचित ठहराया था लेकिन इससे भी दोनों के बीच संपर्क कम नहीं हुआ। यह सच हैं कि पाकिस्तान के परमाणु हथियार कार्यक्रम में भी चीन को मददगार माना जाता है। बंगलादेश और म्यांमार से चीन के सैनिक संबंधों को भी दक्षिण एशिया में भारतीय हितों के खिलाफ माना जाता है पर इसमें से कोई भी मुद्दा दोनों मुल्कों में टकराव करवा देने लायक नहीं माना जाता । इस बात का एक प्रमाण यह है कि इन चीजों के बने रहने के बावजूद सीमा विवाद सुलझाने की बातचीत और सैन्य स्तर पर सहयोग का कार्यक्रम जारी है। चीन और भारत के नेता तथा अधिकारी अब क्सर नयी दिल्ली और बीजिंग का दौरा करते हैं। परिवहन और संचार मार्गों की बढ़ोतरी, समान आर्थिक हित तथा एक जैसे वैश्विक सरोकारों के कारण भारत और चीन के बीच संबंधों को ज्यादा सकारात्मक तथा मजबूत बनाने में मदद मिली है ।
3. भारत-पाकिस्तान के सम्बन्धों की मुख्य समस्यायें क्या हैं ?
भारत अपने पड़ोसी देशों के साथ शांति एवं मित्रता का संबंध बनाए रखना चाहता है भारत की स्वतंत्रता के साथ ही पाकिस्तान का जन्म एक पड़ोसी के रूप में हुआ । अपने पड़ोसी देशों से मधुर संबंध रहे तो संबंधित राज्य मानसिक चिंताओं और तनाव के वातावरण से मुक्त होकर अपने साधनों का इस्तेमाल विकास संबंधी कार्यों में लगा सकता है। भारत के पड़ोसी देशों में पाकिस्तान, चीन, नेपाल, भूटान, म्यामार, श्रीलंका और बांग्लादेश मुख्य हैं । पाकिस्तान और चीन को छोड़कर भारत के संबंध अन्य पड़ोसी राज्यों से लगभग अच्छे हैं। चीन के साथ हमारे सीमा विवाद का समाधान आज तक नहीं हुआ है। पाकिस्तान के साथ बनते-बिगड़ते संबंधों के चलते हमारी परेशानियाँ बढ़ी हैं। अटलबिहारी वाजपेयी के शब्दों में भारत अप पड़ोसियों के साथ शांति और मित्रता से रहना चाहता है। आकार और जनसंख्या में बड़ा होने पर भी वह छोटे देशों के साथ समानता के आधार पर सहयोग करना चाहता है। भारत पाकिस्तान के मध्य संबंधों में कटुता विद्यमान हैं, ये समस्याएँ निम्नलिखित हैं ।
1. कश्मीर का मामला
2. शरणार्थियों का प्रश्न
3 आतंकवाद,
4. नहरी पानी विवाद
5. ऋण की अदायगी का प्रश्न ये ऐसी समस्याएँ हैं जिसके चलते दोनों के बीच काफी उग्रता उत्पन्न हुई हैं (1) पाकिस्तान ने तोड़-फोड़, जासूसी, सीमा अतिक्रमण आदि कार्यवहियों के अलावा 1947,1965 और 1971 में आक्रमण भी किया ।
हरित क्रांति से अभिप्राय कृषि की उत्पादन तकनीक को सुधारने एवं कृषि उत्पादन में तीव्र वृद्धि करने से है । हरित क्रांति के मुख्य तत्व है-
(क) रासायनिक खादों का प्रयोग
(ख) उन्नत किस्म के बीजों का प्रयोग
(ग) सिंचाई सुविधाओं में विस्तार
(घ) कृषि का मशीनीकरण आदि । हरित क्रांति के फलस्वरूप कृषि क्षेत्र में बहुमुखी प्रगति हुई है । हरित क्रांति से पूर्व देश को भारी मात्रा में खाद्यान्न आयात करना पड़ता था जबकि आज हमारा देश इस क्षेत्र में लगभग आत्मनिर्भर हो गया
अथवा
हरित क्रांति क्या है ?
हरित क्रांति के दो सकारात्मक परिणाम (Two Positive Results of Green Revolution ). हरित क्रांति के परिणाम निम्नलिखित हैं
(i) हरित क्रांति में धनी किसानों और बड़े भू-स्वामियों को सबसे ज्यादा फायदा हुआ । हरित क्रांति से खेतिहर पैदावार में सामान्य किस्म का इजाफा हुआ (ज्यादातर गेहूँ की पैदावार बढ़ी) और देश में खाद्यान्न की उपलब्धता में बढ़ोतरी हुई ।
(ii) इससे समाज के विभिन्न वर्गों और देश के अलग-अलग इलाकों के बीच ध्रुवीकरण तेज हुआ। पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश हैं इलाके कृषि के लिहाज से समृद्ध हो गए जबकि बाकी इलाके खेती के मामले में पिछड़े रहे ।
हरित क्रांति के दो नकारात्मक परिणाम (Two Negative Results of Green Revolution ) -
(i) इस क्रांति का एक बुरा परिणाम तो यह हुआ कि गरीब किसानों और भू-स्वामियों के बीच का अंतर मुखर हो उठा । इससे देश के विभिन्न हिस्सों में वामपंथी संगठनों के लिए गरीब किसानों को लामबंद करने के लिहाज से अनुकूल स्थिति पैदा हुई ।
(ii) हरित क्रांति के कारण कृषि में मँझोले दर्जे के किसानों यानी मध्यम श्रेणी के भू-स्वामित्व वाले किसानों का उभार हुआ। इन्हें बदलावों से फायदा हुआ था और देश के अनेक हिस्सों में ये प्रभावशाली बनकर उभरे ।
4.योजना आयोग पर टिप्पणी लिखें ।
योजना आयोग संविधान द्वारा स्थापित बाकी आयोगों अथवा दूसरे निकायों की तरह नहीं है। योजना आयोग की स्थापना, मार्च 1950 में, भारत सरकार ने एक सीधे-सादे प्रस्ताव के जरिए की । यह आयोग एक सलाहकार की भूमिका निभाता है और इसकी सिफारिशें तभी प्रभावकारी हो पाती हैं जब मंत्रिमंडल उन्हें मंजूर करें। जिस प्रस्ताव के जरिए योजना आयोग की स्थापना हुई थी । योजना आयोग कार्य के दायरे क्या होंगे इस संबंध में अग्रलिखित बातें कहीं गई थी के संविधान में भारत के नागरिकों को कुछ मौलिक अधिकार दिए गए हैं और राज्य के लिए नीति-निर्देशक तत्त्वों का उल्लेख किया गया है। नीति-निर्देशक तत्त्वों के अंतर्गत यह बात विशेष रूप से कहीं गई है कि राज्य एक ऐसी समाज-रचना को बनाते-बचाते हुए ... लोगों की भलाई के लिए प्रयास करेगा जहाँ राष्ट्रीय जीवन की सभी संस्थाएँ सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय की भावना से अनुप्राणित हों... राज्य अन्य बातों के अतिरिक्त अपनी नीतियों को इस तरह बनाएगा और अमल में लाएगा ।
राज्य ने योजना आयोग के माध्यम से अपनी निम्नलिखित तीन तरह की नीतियों और उद्देश्यों को लागू करने का निर्णय किया था । वे थी -
(1) स्त्री और पुरुष, सभी नागरिकों को आजीविका के पर्याप्त साधनों का बराबर-बराबर अधिकार हो ।
(2) समुदाय के भौतिक संसाधनों की मिल्कियत और नियंत्रण को इस तरह बाँटा जाएगा कि उससे सर्व सामान्य की भलाई हो, और
(3) अर्थव्यवस्था का संचालन इस तरह नहीं किया जाएगा कि धन अथवा उत्पादन के साधन एकाध केंद्रित हो जाएँ और जनसामान्य की भलाई की बाधित हो ।
अथवा,
भारतीय राजनीति पर एकदलीय बर्चस्व के प्रभावों की समीक्षा करें ।
स्वतंत्रता के बाद भारतीय राजनीतिक व्यवस्था पर कांग्रेस का प्रभुत्व दिखाई दिया । एक अमरीकी लेखक स्टेंनले कोशनिक के शब्दों में कांग्रेस मात्र पार्टी नहीं बल्कि शासन, राज्य यहाँ तक देश बन गई । 1952 1957 व 1962 के आम चुनावों में उसे विशाल बहुमत मिला । उसकी सरकारें बनीं । क्षेत्रीय स्तर पर अनेक पार्टियाँ थीं किंतु सत्ता ग्रहण नहीं कर सकी ।
उसका नेतृत्व किसी सर्वोच्च नेता जैसे नेहरू, शास्त्री व इंदिरा गाँधी के हाथों में रहा । कांग्रेस एक राष्ट्रीय, अखिल भारतीय तथा धर्म निरपेक्ष संगठन बनी रही। नेहरू ने इसे समाजवादी दिशा में मोड़ा। उसने देश के लिए लोकतांत्रिक समाजवाद का मार्ग चुना। उसने संगठन में शहरी व ग्रामीण उद्योग पति व मजदूर भूमिपति व किसान, हिन्दू व मुस्लिम, सवर्ण व अवर्ण, पुरातनवादी व प्रगतिशील सभी तबकों के लोगों को स्थान दिया ।
कांग्रेस की अपनी विचारधारा है जिसमें लोकतंत्र व समाजवाद का अद्भुत मिश्रण है । बदलती दशाओं और परिस्थितियों के अनुसार उस विचारधारा के आयाम बदलते रहते हैं । यदि नेहरू और गाँधी ने उत्साहबर्द्धक समाजवादी कार्यक्रमों को अपनाया तो नरसिंह राव व मनमोहन सिंह ने भूमण्डलीकरण के युग में उदारीकरण की विवशता को मान्यता दी ।
ऐसी विचित्र प्रकृति के कारण कांग्रेस को विविध हितों का संघ कहा जाता है । कांग्रेस के बहुलवादी चरित्र के कारण इसके भीतर सभी तरह के तत्व शामिल है। कांग्रेस ने अन्य पार्टियों को सबल व सशक्त बनने का अवसर नहीं दिया । व्यक्तिगत हित व आपसी प्रतिद्वंद्विता के कारण विपक्षी पार्टियाँ एकमत नहीं हो सकीं जिससे कि अखिल भारतीय स्तर पर कांग्रेस को चुनौती दी जा सके । 5. बिहार के आंदोलन शुरू होने से पूर्व उस राज्य में इंदिरा कांग्रेस की सरकार थी । जहाँ आंदोलन छात्र आंदोलन के रूप में शुरू हुआ । यह आंदोलन न केवल बिहार तक बल्कि अनेक वर्षों तक राष्ट्रव्यापी प्रभावशाली और राष्ट्रीय राजनीति पर दूरगामी प्रभाव डालने वाला साबित हुआ।
बिहार आंदोलन के कारण (Causes of factors of Bihar Movements) - 1974 के मार्च
माह में बढ़ती हुई कीमतों, खाद्यान्न के अभाव, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार के खिलाफ बिहार में छात्रों मे आंदोलन छेड़ दिया। आंदोलन के क्रम में उन्होंने जयप्रकाश नारायण (जेपी) को बुलावा भेजा। जेपी तब सक्रिय राजनीति छोड़ चुके थे और सामाजिक कार्यों में लगे हुए थे। छात्रों ने अपने आंदोलन की अगुआई के लिए जयप्रकाश नारायण को बुलावा भेजा था। जेपी ने छात्रों का निमंत्रण इस शर्त पर स्वीकार किया कि आंदोलन अहिंसक रहेगा और अपने को सिर्फ बिहार तक सीमित नहीं रखेगा। इस प्रकार छात्र- आदोलन एक राजनीतिक चरित्र ग्रहण किया और उसके भीतर राष्ट्रव्यापी अपील आई। जीवन के हर क्षेत्र के लोग अब आंदोलन से आ जुड़े।
आंदोलन की प्रगति एवं सार ( Progress and spread of the Mouement ) -
(क) जयप्रकाश नारायण ने बिहार की कांग्रेस सरकार को बर्खास्त करने की माँग की। उन्होंने सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक दायरे में सम्पूर्ण क्रांति' का आह्वाव किया ताकि उन्हीं के शब्दों में 'सब्वे लोकतंत्र की स्थापना की जा सके। बिहार की सरकार के खिलाफ लगातार घेराव, बंद और हड़ताल का एक सिहासिला चला पड़ा । बहरहाल, सरकार ने इस्तीफा देने से इन्कार कर दिया।
(ख) 1974 के बिहार आंदोलन का एक प्रसिद्ध नारा था "संपूर्ण क्रांति अब नारा है- भावी इतिहास हमारा है।"
प्रभाव (Effects)- आंदोलन का प्रभाव राष्ट्रीय राजनीति पर पड़ना शुरू हुआ। जयप्रकाश नारायण चाहते थे कि यह आंदोलन देश के दूसरे हिस्सों में भी फैले। जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में चल रहे आंदोलन के साथ ही साथ रेलवे के कर्मचारियों ने भी एक राष्ट्रव्यापी हड़ताल का आह्वान किया। इससे देश के रोजमर्रा के कामकाज के उप हो जाने का खतरा पैदा हो गया । 1975 में जेपी ने जनता के 'संसद-मार्च' का नेतृत्व किया। देश की राजधानी में अब तक इतनी बड़ी रैली नहीं हुई थी। जयप्रकाश नारायण को अब भारतीय जनसंघ, कांग्रेस (ओ), भारतीय लोकदल, सोशलिस्ट पार्टी जैसे गैर-कांग्रेसी दलों का समर्थन मिला। इन दलों ने जेपी को इंदिरा गाँधी के विकल्प के रूप में पेश किया।
टिप्पणी ( Comments) जो भी हो जयप्रकाश नारायण बिहार के विचारों और उनके द्वारा अपनायी गई जन-प्रतिरोध की रणनीति की आलोचनाएँ भी मुखर हुई। गुजरात और बिहार, दोनों ही राज्यों के आंदोलन को कांग्रेस विरोधी आंदोलन माना गया। कहा गया कि ये आंदोलन राज्य सरकार के खिलाफ नहीं बल्कि इंदिरा गाँधी के नेतृत्व के खिलाफ चलाए गए हैं। इंदिरा गाँधी का मानना था कि ये आंदोलन उनके प्रति व्यक्तिगत विरोध से प्रेरित है ।
नर्मदा बचाओ आंदोलन - मेधा पाटकर गुजरात में नर्मदा नदी पर बनने वाले सरदार सरोबर बांध के निर्माण का विरोध कर रही माँग है कि जिन लोगों को वहाँ से हटाया जाय उन्हें कहीं और जगह देकर बसाया जाय । यह भी माँग है कि बाँध की ऊँचाई अधिक न हो। ऐसा न हों कि वह टूट जाए । यदि ऐसा हुआ तो गुजरात का काफी भाग जल मग्न हो जायेगा ।
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