खण्ड - 'ब' (लघु उत्तरीय प्रश्न ) - 3अंक वाले प्रश्न
1. आधुनिकरण की प्रमुख विशेषताओं की चर्चा करें
भारतीय समाज की संरचना में परिवर्तन लाने वाली एक अन्य प्रक्रिया आधुनिकीकरण है । जब किसी समाज में धार्मिक विश्वासों की जगह वैज्ञानिक दृष्टिकोण का प्रभाव बढ़ने लगता है, पारलौकिक जीवन की जगह हम वर्तमान जीवन की सफलता को अधिक महत्त्वपूर्ण मानते हैं, कुटीर उद्योगों की जगह प्रौद्योगिक विकास होने लगता है, जीवन में तर्क का महत्त्व बढ़ने लगता है और शुभ-अशुभ की जगह उपयोगी ढंग से व्यवहार करना अधिक महत्वपूर्ण माना जाने लगता है, इस दशा को हम आधुनिकीकरण कहते हैं ।
आधुनिकीकरण की मुख्य विशेषताएँ
(1) लौकिक मूल्यों को महत्त्व,
(2) प्रौद्योगिक विकास,
(3) गतिशीलता में वृद्धि,
(4) परिवर्तन में रूचि,
(5) व्यक्तिगत आकांक्षाओं को मान्यता,
(6) नगरीकरण की वृद्धि,
(7) लोकतांत्रिक मूल्यों में वृद्धि,
2. भारत में हरित क्रांति के प्रमुख विशेषताओं की चर्चा करें
भारत में हरित क्रांति की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
(1) अधिक उपज देने वाली फसलों के कार्यक्रम लागू किए गए
(2) बहुफसल कार्यक्रम आरम्भ किया गया ।
(3) हरित क्रांति के लिए जरूरी था कि खेती वर्षा पर निर्भर न रहे । इसके लिए बड़ी-छोटी सिंचाई की योजनाएँ बनायी गयी ।
(4)सरकार द्वारा रसायनिक खादों के उपयोग पर बल दिया गया ।
(5) कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिए नई तकनीक तथा कृषकों को प्रशिक्षण दिया गया ।
(6)उन्नत किस्म के बीजों की व्यवस्था की गई ।
( 7 ) किसानों को उचित मूल्य मिल सके इसके लिए सरकार द्वारा कृषि- मूल्य आयोग की स्थापना की गई ।
3. भारत में नगरीकरण की प्रमुख प्रवृत्ति की चर्चा करें
भारत में नगरीकरण की प्रक्रिया में काफी तेजी आयी जब उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम समय से ब्रिटिश शासन द्वारा भारत में यातायात के साधनों वृद्धि की जाने लगी। धीरे-धीरे देश के सभी हिस्सों में यातायात के साधनों से जोड़ा जाने लगा । फलस्वरूप ग्रामीणों का नगरों से सम्पर्क बढ़ने लगा । भारत में औद्योगिकीकरण बढ़ने लगे, नगरीकरण का विकास होने लगा । बहुत से ग्रामीण ने रोजगार की तलाश में नगरों की ओर प्रवास करना आरम्भ कर दिया ।
4. भारतीय जाति व्यवस्था पर पड़ने वाले औद्योगीकरण के प्रभाव का उल्लेख करें
औद्योगिकीकरण को भारतीय जाति व्यवस्था की संरचना में परिवर्तन लाने वाली एक प्रमुख प्रक्रिया इस कारण माना जाता है कि इसके फलस्वरूप भारत के सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और ग्रामीण जीवन में व्यापक परिवर्तन हुए हैं। हमारे घरेलू जीवन से लेकर बाहरी दुनिया तक तथा खेत और खलिहानों से लेकर अन्तर्राष्ट्रीय बाजार तक जीवन का कोई क्षेत्र ऐसा नहीं है जिसमें औद्योगिकीकरण ने कुछ न कुछ परिवर्तन न किया हो ।
भारतीय जाति व्यवस्था पर पड़नेवाले औद्योगिकीकरण के प्रभाव निम्नलिखित हैं
(1) सामाजिक संरचना में परिवर्तन,
(2) सामाजिक नियंत्रण की व्यवस्था,
(3) आर्थिक जीवन में परिवर्तन,
(4) धार्मिक जीवन में परिवर्तन,
(5) ग्रामीण जीवन में परिवर्तन
5. भारतीय समाज में भूमि सुधार के प्रमुख कदमों की चर्चा करें
भारतीय समाज में भूमि सुधार का अभिप्राय कृषि भूमि के स्वामित्व एवं परिचालन में किये जाने वाले सुधारों से है । स्वतंत्रता प्राप्ति के समय भूमि सुधारों की आवश्यकता को महसूस किया गया था और बाद में पंचवर्षीय योजना में भूमि सुधारों की निर्धनता विरोधी रणनीति के मूलभूत भाग के रूप में घोषित किया गया ।
भारतीय समाज में भूमि सुधार के प्रमुख कदम निम्न है
(1) मध्य वर्ग की समाप्ति
( 2 ) काश्तकारी सुधार
6. भारतीय समाज की प्रांतीयता की समस्या का चर्चा करें
साम्प्रदायिकता के ही समान भारत में सामुदायिक विघटन की एक अन्य समस्या प्रान्तीय की है अर्थात् क्षेत्रवाद की है । जिसने स्वतंत्रता के बाद अत्यधिक विषम रूप धारण करके बड़े-बड़े संघर्षों तथा हिंसक आन्दोलनों को जन्म दिया है । साम्प्रदायिकता की समस्या जहाँ धार्मिक आध र पर आत्म-केन्द्रित तथा परस्पर विरोधों समूहों का निर्माण करती है, वहीं क्षेत्रवाद ( प्रान्तीय) में संघर्ष, विरोध तथा घृणा का आधार एक विशेष क्षेत्र के प्रति वहाँ के निवासियों की अन्ध-भक्ति का होना है ।
भारतीय समाज में प्रान्तीयता की समस्या के निम्नलिखित कारण हैं
(1) राजनीतिक कारण
(2) आर्थिक स्वार्थ,
(3) भाषायी भिन्नताएँ,
(4) भौगोलिक कारण,
(5) सांस्कृतिक भिन्नताएँ,
(6) ऐतिहासिक कारण
(7) मनोवैज्ञानिक कारण "
7. भारतीय समाज में धर्मनिरपेक्ष की आवश्यकता चर्चा करें
भारतीय समाज में धर्म निरपेक्षता के क्रियान्वयन में कुछ ऐसे दोष है जिनसे यहाँ साम्प्रदायिक तनाव को प्रोत्साहन भिन्न है। वर्तमान स्थिति यह है कि भारत में हिन्दुओं, मुसलमानों तथा ईसाइयों के लिए सामाजिक कानून पृथक्-पृथक् है । इसके फलस्वरूप विभिन्न धार्मिक समूहों में न केवल सामाजिक दूरी बनी रहती है बल्कि सभी धार्मिक समूहों का यह प्रयत्न रहता है कि वे धर्म के आध र पर अधिक से अधिक संगठित होकर अपने लिए एक पृथक् सामाजिक व्यवस्था की माँग कर सकें । इसके फलस्वरूप हमारा राष्ट्र मूल रूप से ही अनेक आत्म-केन्द्रित टुकड़ों में विभाजित हो जाता है ।
8. संप्रदायिकता को परिभाषित करें
साम्प्रदायिकता का अर्थ एक साम्प्रदायिक व्यक्ति अथवा समूह वह जो अपने धार्मिक या भाषा-भाषी समूह को एक ऐसी पृथक् राजनीतिक तथा सामाजिक इकाई के रूप देखता है जिसके हित दूसरे समूहों से पृथक होते हैं और जो अक्सर उनके विरोधी भी हो सकते हैं ।
9. भारतीय संयुक्त परिवार व्यवस्था की प्रमुख विशेषताओं की चर्चा करें
संयुक्त परिवार की प्रकृति को इसकी संरचना और व्यवहार के तरीकों के आधार पर सरलता से समझा जा सकता है। विभिन्न लेखकों ने इन विशेषताओं का उल्लेख निम्नांकित रूप से किया है
(1) बड़ा आकार
(2) सामान्य निवास,
(3) सामान्य रसोई,
(4) संयुक्त सम्पत्ति,
(5) कर्ता की प्रध नता,
(6) अधिक स्थायित्व,
(7) परम्पराओं की प्रधानता,
(8) धार्मिक क्रियाओं में संयुक्त सहभाग,
(9) समाजवादी व्यवस्था ।
10. भारतीय समाज में लिंग भेद के परिणामों की चर्चा करें
भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन में एक प्रमुख समाजशास्त्रीय तथ्य यहाँ की जाति व्यवस्था तथा उससे उत्पन्न होने वाले जातिगत भेदभाव रहे हैं। भारतीय समाज में लिंग भेद के परिणाम काफी रहे हैं । एक जाति दूसरे जाति की प्रति अपने सम्पर्क में आने की अनुमति नहीं दी जाती थी । प्रत्येक जाति अपनी संस्कृति, खान-पान, सामाजिक सम्पर्क के सम्बन्धों, व्यवसायों, विवाह और छुआछूत के आधार पर एक-दूसरे से अलग समुदाय था । इसके परिणाम के अन्तर्गत नजदीकी देशों द्वारा काफी फायदा उठाया जाने लगा था ।
खण्ड - 'स' (दीर्घ उत्तरीय प्रश्न ) 6 अंक वाले प्रश्न
1. 2011 की जनगणना के संदर्भ में भारतीय आबादी की प्रमुख विशेषताओं की चर्चा करें
भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद सन् 1951 में यहाँ की जनसंख्या 36.10 करोड़ थी इसके बाद जनसंख्या में बहुत तेजी से वृद्धि होने लगी । सन् 2001 की जनगणना के अनुसार यहाँ की जनसंख्या 102.87 करोड़ से भी अधिक हो चुकी थी । गैर-सरकारी अनुमानों के अनुसार सन् 2009 तक हमारे समाज की जनसंख्या लगभग 116.00 करोड़ हो चुकी है। परिवार नियोजन के बड़े-बड़े प्रयत्नों के बाद भी प्रतिवर्ष लगभग 1.80 करोड़ जनसंख्या बढ़ जाती है । एक वर्ष में बढ़ने वाली यह जनसंख्या आस्ट्रेलिया की कुल जनसंख्या के बराबर है। अनेक अध्ययनों से स्पष्ट हुआ है कि हमारे समाज में व्यापक निरक्षरता, नीचा जीवन स्तर, संयुक्त परिवार व्यवस्था, बाल विवाह का प्रचलन, पुत्र जन्म की कामना तथा बहु-पत्नी विवाह तेजी से बढ़ी हुई जनसंख्या के प्रमुख कारण हैं भारत में जनसंख्या वृद्धि ।'जनसंख्या विस्फोट' की स्थिति - जनसंख्या विस्फोट की अवधारणा वर्तमान युग की देन है जिसका सीधा-सा अर्थ है, 'बच्चों की बाढ़', 'जनाधिक्य' या 'जनसंख्या की अत्यधिक वृद्धि' । सी० पी० ब्लेकर के अनुसार, “जनसंख्या विस्फोट की अवस्था में जन्म दर उच्चस्तर का किन्तु हासोन्मुखी होता है, किन्तु मृत्यु दर में ह्रास निम्नस्तरीय होने से जनसंख्या वृद्धि का आकार विस्फोटक हो जाता ।" जनसंख्या विस्फोट या तीव्र जनसंख्या वृद्धि का आर्थिक विकास पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता
वर्तमान में भारत जनसंख्या विस्फोट की स्थिति से गुजर रहा है । इस समय भारत की शुद्ध जनसंख्या वृद्धि की दर 18 मिलियन व्यक्ति प्रति वर्ष है, जो लगभग ऑस्ट्रेलिया की जनसंख्या के बराबर है अर्थात् जनसंख्या की दृष्टि से भारत में एक ऑस्ट्रेलिया प्रति वर्ष जुड़ जाता है ।
2. भारतीय परिवारिक व्यवस्था में होने वाले आधुनिक परिवर्तन की चर्चा करें
औद्योगिकीकरण तथा नगरीकरण की वर्तमान युग में संयुक्त परिवारों की संरचना और कार्यों में तेजी से परिवर्तन हो रहे हैं । तर्क पर आधारित वैज्ञानिक शिक्षा, नये सामाजिक कानून, रहन-सहन के स्तर में सुधार, स्त्रियों में बढ़ती हुई जागरूकता, जाति के नियमों में शिथिलता, परिवहन और संचार के साधनों में वृद्धि तथा परम्पराओं के प्रभाव में कमी इन परिवर्तनों के कारण हैं। समाजशास्त्रियों ने संयुक्त परिवार में होने वाले जिन परिवर्तनों का उल्लेख किया है, उन्हें निम्नांकित रूप से समझा जा सकता है
(1) संयुक्त परिवार के आकार में परिवर्तन- परम्परागत रूप से संयुक्त परिवारों की सदस्य संख्या 30-40 और कभी-कभी इससे भी अधिक होती थी । आज संयुक्त परिवार के अधिक परिश्रमी व्यक्ति अपना स्वतंत्र परिवार बनाकर अपनी मेहनत का उपभोग स्वयं करने के पक्ष में होते जा रहे हैं । इस प्रकार अतीत की तुलना में वर्तमान संयुक्त परिवारों का आकार बहुत छोटा होता जा रहा ।
(2) प्राथमिक सम्बन्धों में ह्रास - व्यक्तिवादिता में वृद्धि हो जाने के कारण अब सभी सदस्य परिवार में अपने स्वार्थों को ही अधिक महत्त्व देने लगे हैं, चाहे इससे अन्य सदस्यों को कितनी भी हानि क्यों न होती हो । इसके फलस्वरूप संयुक्त परिवार में प्राथमिक सम्बन्धों के स्थान पर द्वितीयक अथवा दिखावे के सम्बन्धों में वृद्धि हो रही है
( 3 ) धर्म के प्रति उदासीनता - मौलिक रूप से संयुक्त परिवारों में सभी संस्कारों, अनुष्ठानों और त्योहारों के द्वारा धर्म को स्थायी रखने का पूरा प्रयत्न किया जाता था । वर्तमान जीवन में शिक्षा की वृद्धि के कारण परिवार के रूढ़िवादी धर्म और कर्मकाण्डों को कोई महत्त्व नहीं दिया जाता । सदस्यों के पास कर्मकाण्डों को पूरा करने के लिए आज न तो समय है और न ही कोई रुचि । संयुक्त परिवार के अनेक सदस्य आज अपनी इच्छा से भी विवाह कर लेते हैं जिससे परिवार के परम्परागत आदर्शों को काफी ठेस पहुँचाती है ।
(4) कर्ता के अधिकारों में कमी- वर्तमान समय में संयुक्त परिवार के कर्त्ता की स्थिति बिल्कुल बदल गयी है । कर्ता को अब सभी सदस्यों की भावनाओं का ध्यान रखना पड़ता है क्योंकि कर्ता को यह डर रहता है कि किसी भी सदस्य को परिवार में उचित स्थान न मिलने पर वह नये कानूनों
का सहायता से परिवार की सदस्यता को छोड़कर अपने हिस्से की सम्पत्ति की माँग कर सकता है । इस प्रकार वर्तमान संयुक्त परिवारों में कर्ता की स्थिति एक निरंकुश शासक की नहीं है, बल्कि ऐसे राजनीतिक नेता के समान है जो अपनी स्थिति को बनाये रखने के लिए सभी सदस्यों की शक्ति के अनुसार उनकी भावनाओं का ध्यान रखता है ।संयुक्त परिवारों में आज उपर्युक्त सभी तत्वों का प्रभाव बढ़ता जा रहा है । इस आधार पर यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि वर्तमान संयुक्त परिवार विघटन की प्रक्रिया में है ।
3. भारतीय जाति व्यवस्था की प्रमुख विशेषताओं की चर्चा करें
जाति भारतीय हिन्दू समाज का आधार है । यह भारतीय सामाजिक संगठन की स्तरीकरण के रूप में सबसे प्रमुख आधार रही है । प्रसिद्ध समाजशास्त्री सी० एच० कूले के अनुसार, “जब एक वर्ग पूर्णतया वंशानुक्रम पर आधारित होता है तब हम उसे जाति कहते हैं।" भारतीय समाजशास्त्री एन० के० दत्ता ने जाति की विस्तृत परिभाषा देते हुए लिखा है- “जाति एक सामाजिक समूह है जिसके सदस्य अपनी जाति से बाहर शादी नहीं कर सकते, जिसमें खान-पान पर प्रतिबंध रहता है, व्यवसाय निश्चित रहता है, संस्तरण रहता है और जिसमें एक जाति से दूसरी जाति परिवर्तन संभव नहीं रहता।
भारतीय जाति व्यवस्था की प्रकृति को उनकी प्रमुख विशेषताओं के आधार पर समझा जा सकता है। जी० एस० घुरिये, एन० के० दत्ता तथा डॉ० श्रीनिवासन ने जाति व्यवस्था को निम्नलिखित विशेषताओं का उल्लेख किया है
(i) जन्म के आधार पर निर्धारण व्यक्ति को एक विशेष जाति की सदस्यता जन्म तथा · आनुवांशिक रूप में प्राप्त होता है। व्यक्ति जिस जाति में जन्म लेता है, वह आजीवन उसी जाति का सदस्य बना रहता है ।
(ii) निश्चित व्यवसाय - जाति व्यवस्था में प्रत्येक जाति के द्वारा किया जानेवाला व्यवसाय का रूप पूर्व निर्धारित है । आज जो हिन्दू समाज में एक लोहार का बेटा लोहे का काम करने वाला व्यवसाय करता है ।
(iii) अन्तर्विवाह- जाति व्यवस्था का सबसे कठोर नियम यह है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी ही जाति के अंदर विवाह करना आवश्यक है ।
(iv) खान-पान के प्रतिबंध - प्रत्येक व्यक्ति केवल अपनी ही जाति के व्यक्तियों के द्वारा बनाये गए भोजन को ही ग्रहण करेगा । इसके बाद भी खान-पान के प्रतिबंध को कच्चे और पक्के भोजन के रूप में दो भागों में बाँटा गया है । उच्च जाति के लोग निम्न जातियों के सिर्फ दूध और फल ही ग्रहण कर
(v) पवित्रता तथा अपवित्रता की धारणा - सेनार्ट तथा ड्यूर्मा ने पवित्रता तथा अपवित्रता को धारण को जाति विभाजन के सबसे प्रमुख आधार के रूप में स्वीकार किया है। जिन जातियों को जन्म और व्यवसाय के आधार पर अपवित्र माना गया, उनसे उच्च अथवा पवित्र - जातियों द्वारा सामाजिक संपर्क रखने पर कठोर प्रतिबंध लगाए गए हैं ।
(vi) समाज का खंडनात्मक विभाजन- जाति एक ऐसी व्यवस्था है जिसके द्वारा सम्पूर्ण हिन्दू समाज को विभिन्न खंडों में विभाजित करता है । सारांशतः जाति व्यवस्था की अवधारणा इतना जटिल है कि इन्हें चंद विशेषताओं के आधार पर स्पष्ट नहीं किया जा सकता ।
4. संस्कृतिकरण क्या है भारतीय जाति व्यवस्था में परिवर्तन लाने के लिए इसकी इसमें क्या भूमिका है
संस्कृतिकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जो उच्च और निम्न जातियों के परम्परागत सम्बन्धों तथा निम्न जातियों की सामाजिक स्थिति में होने वाले सुधार को स्पष्ट करती है। उन्होंने भारतीय समाज में संस्कृतिकरण के फलस्वरूप होने वाले जिन प्रमुख परिवर्तनों का उल्लेख किया, उन्हें निम्नांकित क्षेत्रों में देखा जा सकता है
(1) निम्न जातियों की जीवन-शैली में परिवर्तन- परम्परागत रूप से जाति-व्यवस्था के अन्तर्गत निम्न जातियाँ सभी तरह के सामाजिक, आर्थिक तथा धार्मिक अधिकारों से वंचित थीं। संस्कृतिकरण के प्रभाव से इन जातियों की स्थिति में सुधार होने के साथ ही उनमें एक नयी चेतना का विकास हुआ । आज उच्च और निम्न जातियों के व्यवहारों में किसी तरह का स्पष्ट अन्तर कर सकना बहुत कठिन है।
(2) जातिगत नियमों की कठोरता में कमी- संस्कृतिकरण के फलस्वरूप जाति के परम्परागत नियम बहुत तेजी से कमजोर होते जा रहे हैं। आज विभिन्न जातियों के बीच सामाजिक सम्पर्क और खान-पान से सम्बन्धित भेद-भाव पूरी तरह समाप्त हो चुके हैं। निम्न जातियाँ राजनीति, प्रशासन, शिक्षा, उद्योग और व्यापार में तेजी से आगे बढ़ रही हैं। पवित्रता और अपवित्रता सम्बन्धी भावनाएँ बदल चुकी हैं । निम्न जातियों के धार्मिक व्यवहारों का रूप भी उच्च जातियों की तरह होता जा रहा है । इस प्रकार संस्कृतिकरण ने भारत की परम्परागत सांस्कृतिक संरचना में आधारभूत परिवर्तन किये हैं ।
(3) समाज की शक्ति संरचना में परिवर्तन- परम्परागत रूप से सभी जातियों का कर्तव्य ब्राह्मणों के प्रभुत्व को स्वीकार करना था। संस्कृतिकरण में वृद्धि होने से उच्च जातियों के अधिकार कम होने लगे । निम्न जातियों की राजनीतिक और सामाजिक शक्ति बढ़ने से भी शक्ति संरचना पर उच्च जातियों का एकाधिकार समाप्त हो गया ।
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