उत्सर्जन
1. मनुष्य के मूत्रतंत्र का एक स्वच्छ-नामांकित चित्र बनाएँ। वर्णन की आवश्यकता नहीं है।
उत्तर – मनुष्य के मूत्रतंत्र का नामांकित चित्र—
2. वृक्क के द्वारा उत्सर्जन क्रिया कैसे संपन्न होती है? समझाएँ।
उत्तर – वृक्क से मूत्र के रूप में उत्सर्जन निम्नलिखित तीन प्रक्रियाओं के द्वारा - — होता है।
(i) ग्लोमेरूलर फिल्ट्रेशन -यह एक भौतिक प्रक्रम है, जिसमें ग्लोमेरूलस की अपवाही धमनिका का व्यास अभिवाही धमनिका के व्यास से कम होने के कारण, ग्लोमेरूलस की रुधिर केशिकाओं में रुधिर बहुत दाब के साथ प्रवेश करता है। इस दाब के फलस्वरूप रुधिर प्लाज्मा, बौमेन्स कैप्स्यूल की भित्ति द्वारा छनकर इसके भीतर प्रवेश कर जाता है। ग्लोमेरूलस में छनने की इस क्रिया को परानिस्यंदन (ultrafiltration) कहते हैं और छनित पदार्थ को ग्लोमेरूलर फिल्ट्रेट कहते हैं।
(ii) ट्यूबुलर पुनरवशोषण – ज्योंही छनित (ग्लोमेरूलर फिल्ट्रेट) वृक्क नलिका में आता है, समीपस्थ कुंडलित नलिका की कोशिकाएँ, ग्लूकोस, सोडियम, पोटैशियम लवण, जल आदि पदार्थों को अवशोषित कर लेती हैं, एवं ये अवशोषित पदार्थ वृक्क नलिका के चारों ओर विद्यमान कोशिकाओं से होते हुए फिर वहाँ से सामान्य परिवहन में पहुँच जाते हैं।
(iii) ट्यूबुलर स्रवण- समीपस्थ और दूरस्थ कुंडलित वृक्क नलिका की कोशिकाएँ कुछ अन्य पदार्थों को उत्सर्जी पदार्थ के रूप में स्रावित करती हैं, जो फिल्ट्रेट से मिल जाते हैं। -
इस प्रकार जब छनित द्रव दूरस्थ कुंडलित भाग में पहुँचता है, तब इसे मूत्र कहते । यह मूत्र मूत्रनलिका से होते हुए मूत्राशय में जमा होता है, और समय-समय पर मूत्रमार्ग के छिद्र द्वारा बाहर निकाल दिया जाता है।
3. कृत्रिम वृक्क क्या है? यह किस प्रकार कार्य करता है? —
उत्तर – डायलिसिस मशीन (dialysis machine) एक कृत्रिम वृक्क की तरह कार्य करता है, अतः डायलिसिस मशीन एक कृत्रिम वृक्क है। इस मशीन में एक टंकी होती है, जिसे डायलाइजर कहते हैं। डायलाइजर में डायलिसिस फ्लूइड (dialysis fluid) नामक तरल पदार्थ भरा होता है। इस तरल पदार्थ में सेलोफेन से बनी बेलनाकार रचना लटकती है, जो आंशिक रूप से पारगम्य होता है, तथा यह केवल विलेय (solute) को ही विसरित होने देता है। डायलिसिस फ्लूइड की सांद्रता ऊतक द्रव-जैसी होती है, लेकिन इसमें नाइट्रोजनी विकार तथा लवण की मात्रा कम होती है।
कार्यविधि – सर्वप्रथम ऐसे व्यक्ति, जिसका अपने शरीर का वृक्क कार्य नहीं करता, के शरीर का रक्त एक धमनी द्वारा निकालकर उसे 0°C तक ठंडा किया जाता है। अब इस रक्त को एक पंप की सहायता से डायलाइजर में भेजा जाता है। यहाँ रक्त से नाइट्रोजनी विकार विसरित होकर डायलिसिस फ्लूइड में चला जाता है। पुनः, इस रक्त को पंप की मदद से एक शिरा के द्वारा उस व्यक्ति के शरीर में वापस पहुँचा दिया जाता है। इस प्रकार कृत्रिम वृक्क से रक्त के शुद्धिकरण की यह विधि एक अत्यंत विकसित तकनीक है।
4. अमीबा में उत्सर्जन एवं जल-संतुलन की क्रिया किस प्रकार होती है? सचित्र समझाएँ ।
उत्तर – अमीबा में विभिन्न उपापचयी (metabolic) क्रियाओं के फलस्वरूप कार्बन डाइऑक्साइड एवं अमोनिया-जैसे नाइट्रोजनी पदार्थों का उत्सर्जन उनके शरीर के बाहरी सतह (प्लाज्मालेमा) से विसरण द्वारा होता है। अमीबा में संकुचनशील रसधानी (contractile vacuole) द्वारा जल-संतुलन की क्रिया संपन्न होती है। इसमें जब अमीबा के शरीर में परासरण द्वारा अधिक मात्रा में जल प्रवेश कर जाता है, तब जल की आवश्यकता से अधिक मात्रा संकुचनशील रसधानी में एकत्र होती है। यह रसधानी धीरे-धीरे किनारे की तरफ खिसकती जाती है। अंत में प्लाज्मालेमा के समीप पहुंच पर यह रसधानी फड़ जाती है और जल शरीर से बाहर निकल जाता है, तथा पुनः इसी स्थान पर एक नई संकुचनशील रसधानी बन जाती है। अतः, अमीबा में संकुचनशील रसधानी जल संतुलन का कार्य करनेवाला अंगक है, और उससे जल के साथ साथ उत्सजी पदार्थ भी शरीर से बाहर निकलता है।
5. पौधों में उत्सर्जन कैसे होता है?
उत्तर -पौधों में उत्सर्जन के लिए जंतुओं जैसे कोई विशिष्ट अंग नहीं पाए जाते हैं। पौधों में उत्सर्जन के लिए निम्नांकित तरीके अपनाए जाते हैं।
(i) पौधों में कार्बनिक उत्सर्जी उनकी मृत कोशिकाओं; जैसे— अंतः काष्ठ, पत्तियों एवं छाल में संचित रहते हैं। पत्तियों के गिरने एवं छाल के बिलगाव से उन उत्सर्जी पदार्थों का पादप शरीर से निष्कासन होता है।
(ii) विभिन्न उपापचयी क्रियाओं के दौरान टैनिन, रेजिन एवं गोंद आदि उत्सर्जी पदार्थों का निर्माण होता है। टैनिन वृक्षों की छाल में तथा रेजिन एवं गोंद पुराने जाइलम में संचित रहते हैं।
(iii) कुछ पौधों में उत्सर्जी पदार्थ गाढ़े, दूधिया तरल के रूप में संचित होता है, जिसे लैटेक्स (latex) कहते हैं।
6. एक स्वच्छ चित्र के साथ मानव नेफ्रॉन का वर्णन करें।
नेफ्रॉन वृक्क की रचनात्मक तथा क्रियात्मक इकाई होती है। प्रत्येक वृक्क में लगभग 10 लाख नेफ्रॉन (nephron) पाए जाते हैं। प्रत्येक नेफ्रॉन में एक प्यालीनुमा संरचना होती है, जिसे बोमैन-संपुट कहते हैं। यह रचना एक केशिका-गुच्छ नामक रक्त केशिकाओं के जाल को घेरता है जिसे ग्लोमेरूलस कहते हैं। ग्लोमेरूलस एवं बोमैन-संपुट को सम्मिलित रूप से मैलपीगियन कोष (Malpighian capsule) कहते हैं। नेफ्रॉन के कार्य में एक समीपस्थ एवं दूरस्थ कुंडलित भाग होता है। समीपस्थ भाग नीचे आकर अवरोही चाप एवं प्रांतस्थ भाग में जाकर अधिरोही चाप बनाता है। अवरोही एवं अधिरोही चापों के बीच एक विशेष भाग हेनले का चाप अवस्थित होता है। अधिरोही चाप आगे की ओर एक संग्राहक नलिका में खुलता है। इस नलिका में अनेक अन्य वृक्क नलिकाएँ आकर खुलती हैं और सभी संग्राहक नलिकाएँ आपस में मिलकर सामान्य संग्राहक नली बनाती हैं, जो अंत में मूत्रवाहिनी में खुलती हैं।
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