1. कार्बन-14 विधि से आप क्या समझते हैं ?
कार्बन - 14 विधि तिथि निर्धारण की वैज्ञानिक विधि है । वस्तुतः किसी भी जीवित वस्तु में कार्बन- 12 एवं कार्बन-14 समान मात्रा में पाया जाता है। मृत्यु अथवा विनाश की अवस्था में C-12 तो स्थिर रहता है, मगर C-14 का निरन्तर क्षय होने लगता है। कार्बन का अर्ध-आयुकाल 5568 + 90 वर्ष होता है, अर्थात् इतने वर्षों में इस पदार्थ में C-14 की मात्रा आधी रह जाती है । इस प्रकार वस्तु के काल की गणना की जाती है। जिस पदार्थ में C-14 की मात्रा जितनी कम होती है, वह उतना ही प्राचीनतम माना जाता है ।
2. हड़प्पा सभ्यता के पतन के मुख्य कारण क्या थे ?
हड़प्पा सभ्यता के प्राचीन साक्ष्यों से पता चलता है कि अपने अस्तित्व के अन्तिम चरण में यह सभ्यता पतनोन्मुख रही । ई० पू० द्वितीय शताब्दी के मध्य तक यह सभ्यता पूर्णत: विलुप्त हो गई । हड़प्पा सभ्यता के काल एवं निर्माताओं की तरह ही इसके पतन को लेकर भी विभिन्न विद्वान एकमत नहीं है। यह कथन काफी उपयुक्त प्रतीत होता है कि जलवायु परिवर्तन प्रदूषित वातावरण तथा व्यापार में आयी भारी गिरावट के फलस्वरूप हड़प्पा सभ्यता की समृद्धि समाप्त हो गई ।
3. बौद्ध संगीतियाँ क्यों बुलाई गई ? चतुर्थ बौद्ध संगीत का क्या महत्त्व है ?
गौतम बुद्ध के महापरिनिर्वाण के पश्चात् समय-समय पर बौद्ध धर्म की व्याख्या हेतु अनेक बौद्ध सभाओं का आयोजन किया गया जिन्हें बौद्ध संगीति के नाम से जाना जाता है । चतुर्थ - बौद्ध संगीति समय - प्रथम शताब्दी ई० । स्थान- कुण्डलवन (कश्मीर) शासक-कनिष्क (कुषाण वंश)
आध्यक्षा - वसुमित्र, संगीति के उपाध्यक्ष अश्वघोष थे । महत्व - इस संगीति का आयोजन इसआशय से किया गया था कि बौद्धों के मतभेदों को दूर किया जा सके । इस संगीति में महासाधिकों को बोलबाला रहा । त्रिपितक पर प्रमाणिक भास्य 'विभाषा सास्त्र' की रचना इसी संगीति में हुई। इस संगीत के पश्चात् ही बौद्ध अनुयायी हीनयान तथा महायान दो समुदायों में विभाजित हो गये ।
4. मुगलकालीन केंद्रीय प्रशासन की मुख्य विशेषताओं का वर्णन करें ।
मुगलकालीन केन्द्रीय प्रशासन की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित प्रकार थी
1. वकील - इसे बजीर भी कहा जाता था। यह केन्द्रीय सरकार के समस्त विभागों का अध्यक्ष था। अकबर ने बैरम खाँ के पश्चात् इस पद का अन्त कर दिया ।
2. दीवान या वित्तमंत्री - आर्थिक विषयों में यह बादशाह का प्रतिनिधि था ।
3. मीर बख्शी - यह सेना सम्बन्धी सभी कार्य देखता था। यह सेना, मनसबदार एवं घोड़ों सम्बन्धी व्यवस्था देखता था ।
4. प्रधान काजी - यह प्रांत, जिला एवं नगर के काजियों की नियुक्ति करता था । फौजदारी मुकदमों को देखता था ।
5. प्रान्तीय शासन - सूबेदार प्रान्त अथव सूबे का प्रमुख होता था । दीवान सूबे में वित्त व्यवस्था देखता था । कोतवाल सूबे की आन्तरिक सुरक्षा देखता था ।
6. जिला शासन - प्रत्येक प्रान्त जिलों में विभक्त था फौजदार जिले का प्रमुख अधिकारी था ।
5. अलबेरुनी पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखें ।
अलबरूनी मध्य एशिया के ख्वारिज्म का निवासी था । उसका जन्म आधुनिक उजबेकिस्तान में ख्वारिज्म के पास बेरू नामक स्थान पर 4, दिसम्बर 973 ई० को हुआ था । ख्वारिज्म शिक्षा का एक प्रमुख केन्द्र था । अलबरूनी ने अच्छी शिक्षा प्राप्त की और एक विद्वान के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त की । वह कई भाषाओं का ज्ञाता था जिनमें सीरियायी, फारसी, हिब्रु तथा संस्कृत आदि भी थी । महमूद गजनी के भारत पर आक्रमण के समय ही अलबरूनी भारत आया । अलबरूनी ने भारत पर अरबी भाषा में लगभग बीस पुस्तकें लिखी लेकिन इन सबमें किताब उल हिन्द अथवा तहकीक ए हिन्द एक बेजोड़ ग्रन्थ है । 70 वर्ष की आयु में सितम्बर माह 1048 ई० में लगभग उनकी मृत्यु हो गई ।
6. चिश्ती सम्प्रदाय के तीन प्रमुख संतों का संक्षिप्त परिचय दें ।
भारत वर्ष में चिश्ती सम्प्रदाय का प्रवर्तक ख्वाजा मुइनुद्दीन चिख्ती को माना जाता है । ये 1192 ई० में भारत में आये ।
चिश्ती सम्प्रदाय के तीन प्रमुख संतों का परिचय
1. शेख कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी- यह मुइनुद्दीन चिश्ती के प्रमुख शिष्य थे । ये इल्तुतमिश के समय भारत आये । इनका जन्म 1235 ई० में फरगना के गौस नामक स्थान पर हुआ था । बख्तियार ( भाग्य - बन्धु) नाम मुहनुद्दीन का दिया हुआ था ।
2. फरीदउद्दीन गंज एक शकर्- इनका जन्म मुल्तान जिले के कठवाल शहर में 1175 ई० में हुआ था । ये बाबा फरीद के नाम से प्रसिद्ध थे। तीन पलियों में से एक, प्रथम पत्नी बलवन की पुत्री थी जिसका नाम हुजैरा था ।
3. शेख निजामुद्दीन औलिया- इनका वास्तविक नाम मुहम्मद बिन अहमद बिन - दनियल - अल बुखारी था । इनका जन्म बदायूँ में 1236 ई० में हुआ था । इन्होंने अपने जीवन काल में दिल्ली के सात सुल्तानों का राज्य देखा था । इनकी मृत्यु 1325 ई० में हुई ।
7. रैयतवाड़ी भू-राजस्व बन्दोवस्ती व्यवस्था की विशेषताओं पर प्रकाश डालें ।
अंग्रेजों ने अपने औपनिवेशिक शासन के तहत भू राजस्व की तीन नीतियाँ अलग-अलग प्रान्तों में स्थापित की थी - 1. स्थाई बन्दोबस्त, 2. रैयतबाड़ी बन्दोबस्त तथा 3. महालबाड़ी बन्दोबस्त । रैयतबाड़ी बन्दोबस्त व्यवस्था की विशेषताएँ - यह व्यवस्था बम्बई, असम तथा मद्रास के अन्य प्रान्तों में लागू की गई। इसके अन्तर्गत औपनिवेशिक भारत की भूमि का 51% भाग था। भू-राजस्व की यह व्यवस्था मद्रास प्रेसीडेंसी और बम्बई प्रेसीडेंसी के कुछ भागों में लागू किया गया था । यह व्यवस्था सीधे किसानों के साथ की गई थी ।
8. 1857 के विद्रोह का तात्कालिक कारण क्या था ?
1857 का विद्रोह विभिन्न राजनीतिक आर्थिक, धार्मिक कारणों की परिणति थी। इसके अतिरिक्त सैनिकों से जुड़ी समस्याओं ने भी उसकी संभव बनाया। भारतीय सैनिकों को ब्रिटिश सैनिकों की अपेक्षा हेय दृष्टि से देखा जाता था। ब्रिटिश सैनिकों से बेहतर होने के बावजूद भारतीय सैनिकों को कम वेतन मिलता था। भारतीय सैनिकों को पदोन्नति के अवसर नहीं मिलते । उसके अतिरिक्त समुद्र पार जाने के अधिनियम से भारतीय सैनिकों को लगा कि ब्रिटिश सरकार उसका धर्म नष्ट कर रही है । अतः इन सब कारणों ने मिलकर सैनिकों को विद्रोह लिए प्रेरित किया।
9. गाँधीजी 1917 में चंपारण क्यों गए ? वहाँ उन्होंने क्या किया ?
चम्पारण का मामला महात्मा गाँधी के सामने आया । 19वीं सदी के प्रारम्भ में गोरे बागान मालिकों ने किसानों से एक अनुबन्ध किया जिसके अनुसार किसानों को अपनी जमीन के 3/20 वें हिस्से में नील की खेती करना अनिवार्य था । इस 'तिनकठिया' पद्धति कहा जाता था। किसान इस अनुबन्ध से मुक्त होना चाहते थे । 1917 में चम्पारण के राजकुमार शुक्ल चम्पारण पहुँची । गाँधीजी के प्रयासों से सरकार ने चम्पारण के किसानों की नियुक्त किया गया । अन्त में गाँधीजी की विजय हुई। के अनुरोध पर गाँधीजी जाँच हेतु एक आयोग
10. संघ सूची, राज्य सूची तथा समवर्ती सूची का संक्षिप्त वर्णन करें ।
संघ सूची में वे विषय रखे गए जो राष्ट्रीय महत्व के हैं तथा जिनके बारे में देश भर में एक समान नीति होना आवश्यक है । जैसेप्रतिरक्षा, विदेश नीति, डाक-तार व टेलीफोन, रेल मुद्रा, बीमा व विदेशी व्यापार इत्यादि सूची में कुल 35 विषय है । । इस सम्मिलित किये गये थे जिन पर कानून बनाने का राज्य सूची में प्रादेशिक महत्त्व के विषय अधिकार राज्य सरकारों को दिया गया। राज्य सूची के प्रमुख विषय हैं- कृषि, पुलिस, जेल, चिकित्सा,
स्वास्थ्य, सिंचाई व मालगुजारी इत्यादि । इन विषयों की संख्या 66 थी ।
11.वैदिक धर्म की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन करें ।
वैदिक धर्म भारत का प्राचीनतम धर्म और वेद है। भारतीय धर्म के प्राचीनतम ग्रन्थ हैं दो भागों में विभाजित है
। वैदिक काल
(1) ऋग्वेदिक धर्म - 1500 ई० पू० से 1000 ई० के बीच ऋग्वेद की रचना हुई । अतः यह काल ऋग्वैदिक काल कहलाता है । ऋग्वैदिक कालीन धर्म में देवताओं की प्रधानता थी । इसमें अधिकांश देवता प्रकृति तत्वों के प्रतीक थे । वे तीन श्रेणियों में विभाजित थेसोम, वृहस्पति । पृथ्वीवासी देवता- पृथ्वी, अग्नि, अंतरिक्षवासी देवता - इन्द्र, वायु, मरूत, रूद्र, पूषण । आकाशवासी देवता - वरूण मित्र एवं सूर्य आदि ।
ऋग्वेद में इन्द्र का 250 बार एवं अग्नि का 200 बार उल्लेख हुआ है। इससे पता चलता है कि इन्द्र सर्वप्रमुख देवता रहा होगा । इन्द्र वर्षा का, मरुत तूफान का एवं वरुण को शक्ति व नैतिकता का देवता माना गया था । वरुण समुद्र का प्रतिनिधि था उसे ऋतस्य गोपा कहा गया । ऋग्वेद में कुल 1,028 सूक्त एवं 10,500 मंत्र हैं । यह 10 मण्डलों में विभक्त है । इसके मंत्रों का एक बड़ा भाग देवताओं की स्तुति में हैं । गायत्री मंच भी ऋग्वेद में ही दिया गया है। ऋग्वेदकालीन आर्यों का धार्मिक जीवन उच्च कोटि का था । यज्ञ एवं पशुबलि की प्रथा थी स्त्री एवं पुरुष बिना पुरोहित के स्वयं भी अनुष्ठान कर सकते थे । पू० से 600 ई० पू० के बीच यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद आदि
(2) उत्तरवैदिक धर्म- वैदिक साहित्य की रचना हुई । अतः यह काल उत्तरवैदिक काल कहलाता है । ऋग्वैदकालीन प्राकृतिक देवताओं का स्थान अब त्रिदेव अर्थात् ब्रह्मा, महेश ने ले लिया । ऋग्वेदकालीन पशुओं का देवता रुद्र अब एक प्रमुख देवता बन गया । ऋग्वेदकालीन गौरक्षक देवता पूषण अब शूद्रों का देवता बन गया । ऋग्वेदिक काल की तुलना में उत्तरवैदिक काल में यज्ञ व कर्मकाण्डों में जटिलता आ गयी । विधान है । 1000 ई० यजुर्वेद में यज्ञ सम्बन्धी मंत्रों का संग्रह है। इसमें यज्ञ एवं हवन सम्बन्धी नियम सामवेद में गाये जाने वाले मंत्रों का संग्रह है। अथर्ववेद में तंत्र-मंत्र, जादू-टोना एवं आयुर्वेदिक औषधियों का विवरण मिलता है ।
वैदिक, धर्म की जानकारी हमें अन्य इन तीन वेदों के अलावा अन्य वैदिक साहित्य ब्राह्मण, अरण्यक, उपनिषद् एवं वेदांग से भी मिलती है । ब्राह्मण-ब्राह्मण ग्रन्थों में वेद मंत्रों के अर्थ एवं सार की टीकाएँ मिलती हैं। प्रत्येक वेद के उपवेद एवं ब्राह्मण ग्रन्थ निम्न प्रकार हैं
वेद
1. ऋग्वेद
2.आयुर्वेद
3. सामवेद
4. अथर्ववेद
उपवेद
आयुर्वेद
धनुर्वेद
गंधर्ववेद
शिल्पवेद
ब्राह्मण
एतरेय, कौशीतकी
शतपथ, वाजसनेय
तापडय, पंचविंश
गोपथ ब्राह्मण
अथवा
,महावीर के जीवन एवं उपदेशों का वर्णन करें ।
जैनों के 24वें तथा अंतिम तीर्थंकर महावीर स्वामी थे जो जैन धर्म के वास्तविक संस्थापक भी माने जाते हैं । महावीर का जन्म 540 ई० पूर्व वैशाली के निकट कुंडग्राम में हुआ था। उनके पिता सिद्धार्थ (जाति) ज्ञातृक क्षत्रिय कुल के प्रधान थे। उनकी माता त्रिशला वैशाली की लिच्छवी राजकुमारी थी । महावीर का विवाह यशोदा नामक राजकुमारी से हुआ था । सत्य की तलाश में महावीर 30 वर्ष की आयु में गृह त्याग कर संन्यासी हो गये। 12 वर्ष की गहन तपस्या के बाद जम्मियग्राम के निकट जुणलिक नदी के तट पर एक साल वृक्ष के नीचे कैवल्य (सर्वोच्च ज्ञान) प्राप्त हुआ । महावीर की मृत्यु 72 वर्ष की आयु में राजगृह के निकट पावापुरी में 468 ई० पूर्व में हुई।
जैन धर्म के सिद्धान्त- महावीर ने पंच महाव्रत के सिद्धान्त पर अधिक बल दिया। जैन धर्म में अहिंसा का प्रमुख स्थान है। हिंसा करना पाप समझा जाता है। इसके अतिरिक्त किसी व्यक्ति को हिंसा के लिए प्रोत्साहित नहीं करना चाहिए ।
दूसरा महाव्रत सत्य का है। इसे पूरा करने के लिए मनुष्य को कोष, भय और लोभ का परित्याग करना चाहिए ।
तीसरा महाव्रत अस्तेय है। इसका अर्थ यह है कि बिना आज्ञा या अनुमति के किसी की वस्तु को नहीं लेना चाहिए । चौथा महव्रत अपरिग्रह है। इसका अर्थ है आवश्यकता से अधिक धन का सग्रह नहीं करना चाहिए ।
पाँचवाँ महाव्रत ब्रह्मचर्य है। इसका अर्थ सभी विषय-वासनाओं का परित्याग करना है। जहाचर्म द्वारा ही चरित्र का निर्माण हो सकता है।
पाँच महाव्रतों के अतिरिका जैन धर्म में तपस्या पर भी अधिक बल दिया गया है | तपस्या द्वारा इन्द्रियों को वश में किया जा सकता है। अपने शरीर को कष्ट देना ही तपस्या है। पापों का प्रायश्चित करने के लिए विनय, सेवा, ध्यान एवं स्वाध्याय है। जैन सम्प्रदाय के लोग अनेक कठोर भौतिक आचरण के नियमों का अनुसरण करते हैं। महावीर जैनियों को नियमित अनुशासित एवं अनासक्त जीवन व्यतीत करने के लिए उपदेश देते थे।
12. मुगल शासक अकबर की उपलब्धियों का वर्णन करें ।
राज्यारोहण के समय अकबर नाममात्र का शासक था। हुमायूँ द्वारा स्थापित साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो चुका था । दिल्ली और आगरा पर हेमू का आधिपत्य था । मुगल राज्य के चारों ओर स्वतंत्र राज्य थे जो स्वेच्छा से अपना शासन चला रहे थे। उस समय मुगलवंश की स्थिति नाजुक थी । इतिहासकार एलफिन्सटन के अनुसार, "भारतवर्ष पर शासन करनेवाले अनेक वंशों में तैमूरलंग का वंश सर्वाधिक निर्बल और अरक्षित आधारवाला था।"
अकबर की विजयों का विवरण निम्न प्रकार है :
दिल्ली, आगरा तथा पंजाब- सबसे पहले अकबर ने दिल्ली के आस-पास के प्रदेशों में अपनी शक्तियों को मजबूत किया। मेवाड़ की ओर से बढ़ते हुए हेमू के पिता का दमन किया एवं उससे राजकोष छीन लिया । उसने सिकन्दर सूर को मानकोट के दुर्ग में घेर लिया तथा उसको अपनी अधीनता मानने के लिए मजबूर किया। इससे हिन्दुओं व अफगानों की शक्ति समाप्त हो गयी । अजमेर और ग्वालियर- उसने 1559 ई० में अजमेर को बिना लड़े अपने अधिकार में कर लिया। 1559 ई० में उसने क्याखाँ को ग्वालियर को जीतने के लिए भेजा। क्याखाँ ने शीघ्र ही ग्वालियर पर अधिकार कर लिया ।
जौनपुर और चुनार- 1561 ई० में जब अकबर मालवा में आदम खाँ को दण्ड देने गया था, स्वर्गीय मुहम्मद आदिलशाह सूर के बेटे शेर खाँ ने एक बड़ी फौज लेकर मुगल राज्य के प्रान्त जौनपुर पर आक्रमण कर दिया, किन्तु अकबर ने तत्परता से कुमुकं भेजी, जिससे वहाँ के प्रान्तपति खानजमा ने शेर खाँ को परास्त कर दिया। इसके बाद अगस्त, 1561 ई० में आसफ खाँ को चुनारगढ़ की विजय के लिए भेजा गया। चुनारगढ़ को जीतकर मुगल राज्य में मिलाकर साम्राज्य के पूर्वी रक्षक दुर्ग के रूप में परिणत कर दिया गया।
जयपुर- तटवर्ती राज्यों द्वारा पीड़ित जयपुर नरेश, 1562 ई० में जब सम्राट अकबर प्रथम बार अजमेर में शेख मुईउद्दीन चिश्ती की दरगाह पर यात्रा करने जा रहा था, अकबर की शरण में आ गया। उसने अपनी पुत्री, जिसके गर्भ से युवराज सलीम ने जन्म लिया का विवाह स्वेच्छा से अकबर के साथ कर दिया तथा अपने पुत्र भगवान दास तथा पौत्र मानसिंह को सम्राट की सेवा में उपस्थित किया। यहाँ पर अकबर ने कूटनीतिज्ञता का परिचय दिया। राजा के साथ उदारता का व्यवहार किया गया। उसके पुत्र तथा पौत्र को साम्राज्य में उच्च तथा प्रतिष्ठित पद प्रदान करके उस जाति को जो उसकी महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति में बाधक सिद्ध होती, अपना भक्त बनाकर अपनी साम्राज्यवादी नीति का साधन बना लिया।
अथवा
भक्ति-आन्दोलन के प्रमुख प्रभावों (परिणामों) का वर्णन करें ।
भक्ति आंदोलन के सन्तों ने स्थानीय भाषा में भजन गाये एवं पदों का सृजन किया, इससे प्रान्तीय भाषा एवं साहित्य का विकास हुआ। जनता में भाईचारे एवं सहिष्णुता की भावना का विकास हुआ। हिन्दू-मुस्लिमों के बीच वैमनस्य में कमी आयी । सामाजिक कुरीतियों एवं अन्धविश्वासों पर प्रहार किया गया । हिन्दुओं के आत्मबल में वृद्धि हुई। निम्न वर्ग को भी सम्बल मिला। आम जनता की संकीर्ण मानसिकता का अन्त हुआ एवं उसका दृष्टिकोण व्यापक हुआ हिन्दू मुस्लिमों की एक संयुक्त संस्कृति का विकास हुआ। मुगल सम्राट अकबर ने तो सभी धर्मों के धर्माचायों से उनके धर्म की विशेषताओं को सुना । हिन्दू धर्म से प्रभावित होकर उसने तिलक लगाना प्रारम्भ किया।
13. भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में महात्मा गाँधी के योगदान का वर्णन करें ।
गधों ने राष्ट्रीय आन्दोलन के को निम्नलिखित विचरों लोकोविच कलं
अन् आदि के ब्लडल :
(क) गांधीजी स्वदेश आए और 1915 से लेकर जन 1948 तक अपने दर्शन और विचरत से लोगों को विभिन्न माध्यमों से अवगत कराते रहे। उनके दर्शन के मुख्य सिद्धान्न अपवा अधारभूत सम्म ये-( सत्याग्रह (1) अहेत. (ITI) शांत, (x) नियों के प्रति सन्दर्य (7) महिलाओं का विक सद्भव, (ो) भरतीय क्षेत्र एवं उनमें रहने वाले लोगों के हितों के बारे में सोचन, काम करना और लोगों को प्रेरणा देना (अनुस्यताका विरोध करता लेकिन हिन्दू की एकता को बनाए रखने के लिए पृषकोकरण का विरोध करन () लक्ष्य और माध्यमकानों को श्रेष्ठता पर बल देना, (x) कल्याणकारी कार्यक्रने, (घ) सुटीर उद्यो इन्थे, (घ) शख, खादी आदि के अपनाने पर बल देना, (भेद और जाते मंद-भव का विरोध करना (घ) स्वयं सर्वसाधारण की वेशभुष, यथासंभव सामान्य लोगों की भाषा बोली को उपलन, सघत्य भारतीय भाषाओं और अंग्रेजी भाषा में लिखना। समाज
(ख) गांधीजी ने भारत आने से पहले हो दक्षिण अफ्रिका में अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाई। उन्हनेमल्यवादसम्मत आदि के लिए प्रयास किए तथा रंग-भेदभाव, जाति भेदभाव के विरुद्ध
सत्याग्रह किया और विश्व पर ख्याति प्राप्त की।
(ग) जब वह 1915 में स्वदेश लौटे तो उस समय कप्रैस पार्टी वास्तव में मध्यवय शिक्षित लेगों को पार्टी थी और उसका प्रभाव कुछ शहरों और कस्बों तक सीमित था। गांधीजी भली-भाँत जानते थे कि भारत गांवों का देश है और यह राष्ट्र की शक्ति ग्रामीण लोगों, श्रमिकों, सर्वसाधारण, महेलाओं, युवाओं आदि में निहित हैं। जब तक ये सभी लोग राष्ट्रीय संघर्ष से नहीं जुड़ेंगे तब तक ब्रिटिश सत्ता को शांतिपूर्ण, अहिंसात्मक आन्दोलनों, सत्याग्रहों, प्रदर्शनों, लेखों आदि से हटना मुश्किल
(६) गांधीजी ने अपने भाषणों, पत्र-पत्रिकाओं में लिखे लेखों, पुस्तकों आदि के माध्यम से औपनिवेशिक सत्ताधारियों को यह जता दिया कि भारत में जो सर्वत्र दरिद्रता, भुखमरी, निम्न जीवन स्वर अशिक्षा अंधविश्वास सामाजिक जुट देखने को मिलती है उसके लिए ब्रिटिश शासन हो सांस्कृतिक और आध्यात्मिक शोषण भी किया है।
आर्थिक,
क्या भारत का विभाजन अनिवार्य था ? स्पष्ट करें ।
सामाजिक, अथवा, भारत की स्वतन्त्रता चाहने वाले राष्ट्रभक्तों को विभाजन के अभिशाप के साथ स्वतन्त्रता मिलो । खिलाफत आन्दोलन के नेता महात्मा गांधी, रवीना आन्दोलन के नेता भाई अब्दुल गनी एवं नाखनलाल चतुर्वेदी ने कभी सोचा भी न होगा कि उन्हें हिन्दू-मुस्लिम दूंगों का यह रूप भी देखना पड़ेगा । इस विभाजन को अभी लगभग 60 वर्ष हुये हैं, आज भी कुड़ ऐसे बुजुर्ग मौजूद हैं जिन्होंने इन दंगों को देखा एवं सहा है। कुछ ऐसे लोग भी मौजूद हैं, जिन्होंने अपने पिता, दादो व नाना से उनके दंगों के बारे में अनुभवों को हुना है। प्रत्येक स्रोत लेखबद्ध नहीं होता, कुछ तथ्य मौखिक रूप से लोगों की जवान द्वारा सुने जाते हैं। अतः हम ऐसे लोगों से साक्षात्कार कर तत्युगीन स्थिति का अध्ययन कर सकते हैं। इस प्रकार मौखिक जानकारी का भी यदि वैज्ञानिक ढंग से उपयोग इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत हो सकती है। पुराने किया जाये तो वह भी
14. विजयनगर साम्राज्य की सांस्कृतिक उपलब्धियों की समीक्षा कीजिए ।
विजयनगर शैली के भवन तुंगभद्रा नदी के सम्पूर्ण दक्षिण क्षेत्र में फैले हैं। इन्होंने मन्दिरों का विस्तार किया। कई मन्दिरों में गोपुरम का निर्माण कराया । यहाँ की स्थापत्य कुला प्रमुखतः तीन भागों में विभाजित की जा सकती है- धार्मिक, राजशाही एवं नागरिक । विजयनगर शैली में चालुक्य, होक्सल, पल्लव एवं चोल शैलियों का मिश्रण देखने को मिलता है। इन्होंने स्थानीय कठोर पत्थर (ग्रेनाइट) का बहुत उपयोग किया है। शिल्पकला में सेलुखड़ो पत्थर का इस्तेमाल किया है। मन्दिरों के स्तम्भों की विविध एवं जटिल सजावट विजयनगर शैली की एक प्रमुख विशेषता है। हम्पी के मन्दिरों में कुछ स्तम्भों पर मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। इन मूर्तियों में पिछले पैरों के बल खड़े हैं । कहीं-कहीं कुछ उपद्रवों जानवर भी बनाये गये हैं। स्तम्भों के दूसरी हुये कुछ घोड़े दिखाये गये बने हुये हैं । और हिन्दुओं की पौराणिक कथाओं के चित्र हम्मों के मन्दिरों में वर्गाकार या चार से अधिक भुजाओं वाले चबूतरों पर मंडप बने हुये हैं मंडपों की छतों एवं छतों के किनारे पर सजावट की गई है। सामान्यतः यह मण्डप चार या पाँच
विजयनगर के कुछ प्रमुख मन्दिर निम्न हैं
(1) विठ्ठल मन्दिर - इसका निर्माण कार्य देवराय द्वितीय काल में प्रारम्भ हुआ एवं कृष्णदेव राय व अच्युतराय के काल तक चलता रहा। यह मन्दिर 500 फुट लम्बे व 310 फुट चौड़ी एक चाहरदीवारी से घिरा है । इसमें गोपुरों से युक्त तीन प्रवेश द्वार हैं । मुख्य मन्दिर मध्य भाग में स्थित रूपी विष्णु का मन्दिर है । इसके तीन भाग हैं
(1) सामने की ओर खुला स्तम्भ हाल, महामण्डप ।
(2) मध्य भाग में इसी तरह का बन्द हॉल, अर्द्ध-मण्डप ।
(3) इसके पृष्ठ भाग में गर्भगृह है ।
डेमिंगौस पेइज ने इस मन्दिर का वर्णन इस प्रकार किया है - " मन्दिर की बाहरी दीवारों पर नीचे से लेकर छत तक ताँबे के पत्र चढ़े हुये हैं । छत के ऊपर बड़े-बड़े जानवरों की मूर्तियाँ बनी हुई हैं । तब मन्दिर के अन्दर प्रवेश करते हैं तो उसके अन्दर स्तम्भों पर तेल से जलने वाले दिये रखे दिखते हैं । ये दिये 2500 से 3000 तक हैं जो रात्रि को जलाये जाते हैं । "........मन्दिर के बाहर एक आँगन में सूर्य देतवा के लिये ग्रेनाइट पत्थर से निर्मित रथ बने हैं। इन पत्थर के रथों के पहिये आज भी घुमाये जा सकते हैं।
अथवा
गोल मेज सम्मेलन क्यों आयोजित किए गए ? इनके कार्यों की विवेचना कीजिए ।
12 नवम्बर, 1930 ई० को प्रथम गोलमेज सम्मेलन का आयोजन हुआ। सम्मेलन की अध्यक्षता ब्रिटिश प्रधानमंत्री रेम्जे मेकडोनाल्ड ने की । इस सम्मेलन में 89 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इसमें ब्रिटेन के तीनों दलों का प्रतिनिधित्व करने वाले 16 ब्रिटिश संसद सदस्य, ब्रिटिश भारत के 57 प्रतिनिधि जिन्हें वायसराय ने मनोनीत किया था तथा देशी रियासतों के 16 सदस्य सम्मिलित थे। कांग्रेस ने इस सम्मेलन का बहिष्कार किया था। कांग्रेस की अनुपस्थिति पर ब्रेल्सफोर्ड ने कहा, "सेन्ट जेम्स महल में भारतीय नरेश, हरिजन, सिक्ख; मुसलमान, हिन्दू, ईसाई और जमींदारों, मजदूर संघों और वाणिज्य संघों सभी के प्रतिनिधि इसमें सम्मिलित हुये पर भारतमाता वहाँ उपस्थिति नहीं थी । " गाँधी-इरविन समझौता : प्रथम गोलमेज सम्मेलन असफल रहा । 19 जनवरी, 1931 ई० को बिना किसी निर्णय के यह समाप्त कर दिया गया । यह स्पष्ट हो गया कि कांग्रेस के बिना कोई संवैध ानिक निर्णय नहीं लिया जा सकता है। ब्रिटिश प्रधानमंत्री रेम्जे मेकडोनाल्ड तथा इरविन दोनों को ज्ञात हो गया कि कांग्रेस के बिना किसी संविधान का निर्माण नहीं किया जा सकता है। देश में उचित वातावरण बनाने के लिए इरविन ने कांग्रेस से प्रतिबन्ध हटा दिया तथा गाँधीजी तथा अन्य नेताओं को छोड़ दिया । अंततः 5 मार्च, 1931 को गाँधी व इरविन में समझौता हो गया। सविनय अवज्ञा .
आन्दोलन वापिस हो गया व द्वितीयक गोलमेज सम्मेलन में कांग्रेस ने भाग लेना स्वीकार कर लिया । से दूसरा को भाग लेना था । कांग्रेस की ओर से एकमात्र प्रतिनिधि के रूप में महात्मा गाँधी ने भाग लिया । मुस्लिम लीग से मुहम्मद अली जिन्ना ने भाग लिया । 7 सितम्बर, 1931 ई० को दूसरा गोलमेज सम्मेलन प्रारम्भ हुआ । गाँधीजी 12 सितम्बर को लन्दन पहुँचे । विभिन्न दल व वर्ग अपना-अपना हित देख रहे थे । गाँधीजी ने कहा, “अन्य सभी दल साम्प्रदायिक हैं । काँग्रेस ही केवल सारे भारत और सब हितों के प्रतिनिधित्व का दावा कर सकती है । " ।
गोलमेज सम्मेलन : गाँधी-इरविन समझौता के तहत दूसरे गोलमेज सम्मेलन में कांग्रेस तीसरा गोलमेज सम्मेलन : भारत मंत्री ने तीसरा गोलमेज सम्मेलन बुलाया । यह सम्मेलन 17 नवम्बर, 1932 ई० से 24 दिसम्बर, 1932 ई० तक चला। कांग्रेस ने इसमें भाग नहीं लिया क्योंकि उसके सभी नेता जेल में बन्द थे ।
15. मुगल काल में जमींदारों की स्थिति का वर्णन कीजिए ।
मुगल भारत में जमींदारों की भूमिका (Role of Zamindars in Mughal India) :
(1) कृषि उत्पादन में सीधे हिस्सेदारी नहीं करते थे। ये जमींदार थे जो अपनी जमीन के मालिक होते थे और जिन्हें ग्रामीण समाज में ऊँची हैसियत की वजह से कुछ खास सामाजिक और आर्थिक सुविधाएँ मिली हुई थीं। ज़मींदारों की बढ़ी हुई हैसियत के पीछे एक कारण जाति था; दूसरा कारण यह था कि वे लोग राज्य को कुछ खास किस्म की सेवाएँ (खिदमत) देते थे ।
(2) जमींदारों की समृद्धि की वजह थी उनकी विस्तृत व्यक्तिगत जमीन थे, यानी संपत्ति मिल्कियत जमीन पर जमींदार के निजी इस्तेमाल के लिए खेती होती थी । अक्सर इन जमीनों पर दिहाड़ी के मजदूर या पराधीन मजदूर काम करते थे। जमींदार अपनी मर्जी के मुताबिक इन जमीनों को बेच सकते थे, किसी और के नाम कर सकते थे या उन्हें गिरवी रख सकते थे ।
(3) जमींदारों की ताकत इस बात से भी थी कि वे अक्सर राज्य की ओर से कर वसूल कर इसके बदले उन्हें वित्तीय मुआवजा मिलता था । सैनिक संसाधन उनकी ताकत का एक सकते थे। और जरिया था। ज्यादातर जमींदारों के पास अपने किले भी थे और अपनी सैनिक टुकड़ियाँ भी जिसमें घुड़सवारों, तोपखाने और पैदल सिपाहियों के जत्थे होते थे।
(4) इस तरह, अगर हम मुगलकालीन गाँवों में सामाजिक संबंधों की कल्पना एक पिरामिड के रूप में करें, तो जमींदार इसके संकरे शीर्ष का हिस्सा था ।
(5) अबुल फजल इस ओर इशारा करता है कि "ऊँची जाति" के ब्राह्मण राजपूत गठबंधन ने ग्रामीण समाज पर पहले ही अपना ठोस नियंत्रण बना रखा था। इसमें तथाकथित मध्यम जातियों की भी खासी नुमाइंदगी थी जैसा कि हमने पहले देखा है, और इसी तरह कई मुसलमान जमींदारों की भी ।
अथवा
संविधान सभा का गठन कैसे हुआ ? संविधान सभा में उठाए गए महत्त्वपूर्ण मुद्दों का उल्लेख करें ।
जिस समय भारत में संविधान के निर्माण के विषय में विचार-विमर्श हो रहा था, उस समय देश में एक राजनीतिक अस्थिरता तथा अविश्वास का वातावरण था। 1946 के उस माहौल में प्रमुख भारतीय नेता इस बात से अवगत थे कि भारत की जनता स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए अब दृढ़ प्रतिज्ञ है तथा अंग्रेजों को शीघ्र ही भारत को आजाद करना होगा। पण्डित जवाहरलाल नेहरू के शब्दों में "ब्रिटेन दो से पाँच वर्षों में भारत छोड़ देगा ।"
ब्रिटिश सरकार भी 1 जनवरी, 1946 को नववर्ष के अवसर पर राज्य सचिव द्वारा दिए गए वक्तव्य तथा कैबिनेट मिशन की घोषणा द्वारा अपना विचार स्पष्ट कर चुकी थी। समझौते के लिए समय उपयुक्त था परन्तु फिर भी भयंकर रक्तपात के पश्चात् ही 15 अगस्त, 1947 को स्वतन्त्रता प्राप्त की जा सकी ।
ब्रिटिश साम्राज्यवाद तथा भारतीय राष्ट्रवाद का संघर्ष तो 1946 के आरम्भ तक समाप्तप्राय: होकर पृष्ठभूमि में चला गया था। अब इस संघर्ष का स्थान ब्रिटिश सरकार काँग्रेस और मुस्लिम लीग के वैचारिक मतभेदों तथा भविष्य सम्बन्धी विचारों ने ले लिया था। काँग्रेस तथा मुस्लिम लीग दोनों प्रमुख राजनीतिक दल साम्प्रदायिक तथा पारस्परिक सामंजस्य बैठाने से असफल होते जा रहे
साम्राज्यवाद के पीछे हटने के बाद नये भारत की दिशा क्या होगी ? इस सन्दर्भ में काँग्रेस की माँग थी कि सर्वप्रथम एक केन्द्रीय इकाई को सत्ता सौंप दी जाए। काँग्रेस मानती थी कि विभाजन यदि आवश्यक है तो उसका निर्णय स्वतन्त्रता के पश्चात् होना चाहिए। जिन्ना की जिद थी 'पहले विभाजन, तब आजादी' ।
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