अमीर खुसरो पर निबंध
गोरी सोवे सेज पर मुख पर डारे केस
चल खुसरो घर आपने रैन भई चहुँ देस
खडी बोली हिन्दी के प्रथम कवि अमीर खुसरो
एक सूफीयाना कवि थे और ख्वाजा निजामुद्दीन
औलिया के मुरीद थे। इनका जन्म ईस्वी सन्
1253 में हुआ था। इनके जन्म से पूर्व इनके पिता
तुर्क में लाचीन कबीले के सरदार थे। मुगलों के
जुल्म से घबरा कर इनके पिता अमीर सैफुद्दीन
मुहम्मद हिन्दुस्तान भाग आए थे और उत्तरप्रदेश
के ऐटा जिले के पटियाली नामक गांव में जा बसे।
इत्तफाकन इनका सम्पर्क सुल्तान शमसुद्दीन
अल्तमश के दरबार से हुआ, उनके साहस और
सूझ-बूझ से ये सरदार बन गए और वहीं एक
नवाब की बेटी से शादी हो गई और तीन बेटे
पैदा हुए उनमें बीच वाले अबुल हसन ही अमीर
खुसरो थे। इनके पिता खुद तो खास पढे न थे पर
उन्होंने इनमें ऐसा कुछ देखा कि इनके पढने का
उम्दा इंतजाम किया। एक दिन वे इन्हें ख्वाजा
निजामुद्दीन औलिया के पास ले गए जो कि
उन दिनों के जाने माने सूफी संत थे। तब इनके
बालमन ने उत्सुकता वश जानना चाहा कि वे यहाँ
क्यों लाए गए हैं? तब पिता ने कहा कि तुम इनके
मुरीद बनोगे और यहीं अपनी तालीम हासिल
करोगे।
उन्होंने पूछा - मुरीद क्या होता है?
उत्तर मिला - मुरीद होता है, इरादा करने वाला।
ज्ञान प्राप्त करने का इरादा करने वाला।
बालक अबुल हसन ने मना कर दिया कि उसे नहीं
बनना किसीका मुरीद और वे दरवाजे पर ही बैठ
गए, उनके पिता अन्दर चले गए। बैठे-बैठे इन्होंने
सोचा कि ख्वाजा निजामुद्दीन औलिया अगर ऐसे
ही पहुँचे हुए हैं तो वे अन्दर
बैठे-बैठे ही मेरी बात समझ जाएंगे, जो मैं सोच
रहा हूँ।
और उन्होंने मन ही मन संत से पूछा कि मैं अन्दर
आऊं या बाहर से ही लौट जाऊं?
तभी अन्दर से औलिया का सेवक हाजिर हुआ
और उसने इनसे कहा कि -
'ख्वाजा साहब ने कहलवाया है कि जो तुम अपने
दिल में मुझसे पूछ रहे हो, वह मैं ने जान लिया है,
और उसका जवाब यह है कि अगर तुम सच्चाई
की खोज करने का इरादा लेकर आए हो तो अन्दर
आ जाओ। लेकिन अगर तुम्हारे मन में सच्चाई की
जानकारी हासिल करने की तमन्ना नहीं है तो जिस
रास्ते से आए हो वापस चले जाओ।
फिर क्या था वे जा लिपटे अपने ख्वाजा के
कदमों से। तब से इन पर काव्य और गीत-संगीत
का नशा सा तारी हो गया और इन्होंने ख्वाजा
निजामुद्दीन औलिया को अपना प्रिय मान अनेकों
गज़लें और शेर कहे। कई दरबारों में अपनी
प्रतिभा का सिक्का जमाया और राज्य कवि बने।
पर इनका मन तो ख्वाजा में रमता था और ये
भटकते थे उस सत्य की खोज में जिसकी राह
दिखाई थी ख्वाजा निजामुद्दीन औलिया ने।
एक बार की बात है। तब खुसरो गयासुद्दीन
तुगलक के दिल्ली दरबार में दरबारी थे। तुगलक
खुसरो को तो चाहता था मगर हजरत निजामुद्दीन
के नाम तक से चिढता था। खुसरो को तुगलक
की यही बात नागवार गुजरती थी। मगर वह क्या
कर सकता था, बादशाह का मिजाज। बादशाह
एक बार कहीं बाहर से दिल्ली लौट रहा था
तभी चिढक़र उसने खुसरो से कहा कि हजरत
निजामुद्दीन को पहले ही आगे जा कर यह संदेस
दे दे कि बादशाह के दिल्ली पहुँचने से पहले ही वे
दिल्ली छोड कर चले जाएं।
खुसरो को बडी तकलीफ हुई, पर अपने सन्त को
यह संदेस कहा और पूछा अब क्या होगा?
" कुछ नहीं खुसरो! तुम घबराओ मत। हनूज
दिल्ली दूरअस्त - यानि अभी बहुत दिल्ली दूर है।
सचमुच बादशाह के लिये दिल्ली बहुत दूर हो गई।
रास्ते में ही एक पडाव के समय वह जिस खेमे में
ठहरा था, भयंकर अंधड से वह टूट कर गिर गया
और फलस्वरूप उसकी मृत्यु हो गई।
तभी से यह कहावत अभी दिल्ली दूर है पहले
खुसरो की शायरी में आई फिर हिन्दी में प्रचलित
हो गई।
छह वर्ष तक ये जलालुद्दीन खिलजी और उसके
पुत्र अलाउद्दीन खिलजी के दरबार में भी रहे ।
ये तब भी अलाउद्दीन खिलजी के करीब थे जब
उसने चित्तौड ग़ढ के राजा रत्नसेन की पत्नी
पद्मिनी को हासिल करने की ठान ली थी। तब ये
उसके दरबार के खुसरु-ए-शायरा के खिताब से
सुशोभित थे। इन्होंने पद्मिनी को बल के जोर पर
हासिल करने के प्रति अलाउद्दीन खिलजी का
नजरिया बदलने की कोशिश की यह कह कर कि
ऐसा करने से असली खुशी नहीं हासिल होगी,
स्त्री हृदय पर शासन स्नेह से ही किया जा सकता
है, वह सच्ची राजपूतानी जान दे देगी और आप
उसे हासिल नहीं कर सकेंगे। और अलाउद्दीन
खिलजी ने खुसरो की बात मान ली कि हम युध्द
से उसे पाने का इरादा तो तर्क करते हैं लेकिन
जिसके हुस्न के चर्चे पूरे हिन्द में हैं, उसका दीदार
तो करना ही चाहेंगे।
तब स्वयं खुसरो पद्मिनी से मिले। शायर खुसरो
के काव्य से परिचित पद्मिनी उनसे बिना परदे के
मिलीं और उनका सम्मान किया। रानी का हुस्न
देख स्वयं खुसरो दंग रह गए। फिर उन्होंने रानी
को अलाउद्दीन खिलजी के बदले इरादे से वाकिफ
कराया कि आप अगर युध्द टालना चाहें तो एक
बार उन्हें स्वयं को देख भर लेने दें। इस पर रानी
का जवाब नकारात्मक था कि इससे भी उनकी
आत्मा का अपमान होगा। इस पर अनेकानेक
तर्कों और राजपूतों की टूटती शक्ति और युध्द
की संभावना के आपत्तिकाल में पडी रानी ने
अप्रत्यक्षत: अपना चेहरा दर्पण के आगे ऐसे कोण
पर बैठ कर अलाउद्दीन खिलजी को दिखाना
मंजूर किया कि वह दूर दूसरे महल में बैठ कर
मात्र प्रतिबिम्ब देख सके। किन्तु कुछ समय बाद
जब अलाउद्दीन खिलजी ने उनका अक्स आईने
में देखा तो बस देखता ही रह गया, भूल गया
अपने फैसले को, और पद्मिनी के हुस्न का जादू
उसके सर चढ ग़या, इसी जुनून में वह उसे पाने
के लिये बल प्रयोग कर बैठा और पद्मिनी ने उसके
नापक इरादों को भांप उसके महल तक पहुँचने से
पहले ही जौहर कर लिया था।
इस घटना का गहरा असर अमीर खुसरो के
मन पर पडा। और वे हिन्द की संस्कृति से और
अधिक जुड ग़ए। और उन्होंने माना कि अगर
हम तुर्कों को हिन्द में रहना ही तो पहले हमें
हिन्दवासियों के दिल में रहना होगा और इसके
लिये पहली जरूरत है कि हम हिन्दवी सीखें।
हिन्दवी किसी तरह से अरबी-फारसी के मुकाबले
कमतर नहीं। दिल्ली के आस-पास बोली जाने
वाली भाषा को ' हिन्दवी नाम सबसे पहले खुसरो
ने ही दिया था। यही शब्द बाद में हिन्दी बना और
यही तुर्की कवि हिन्दी का पहला कवि बना।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें