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प्रकाश

= प्रकाश ऊर्जा का वह स्वरूप है जो वस्तुओं को देखने की संवेदना उत्पन्न करता है। 
= वे वस्तुएँ जो स्वयं प्रकाश उत्पन्न करती हैं, दीप्त वस्तुएँ कहलाती हैं; जैसे— सूर्य, मोमबत्ती, बल्ब आदि । 
=वे वस्तुएँ जो स्वयं प्रकाश उत्पन्न नहीं करती हैं, अदीप्त वस्तुएँ कहलाती हैं; जैसे— ग्रह, पुस्तक आदि।
= प्रकांश जिस पथ पर चलता है उसे किरण कहते हैं। एक सतह के किसी बिंदु पर आनेवाली किरण आपतित * =किरण कहलाती है। वह बिंदु जिसपर किरण आती है, आपतन बिंदु कहलाता है। 
=किरणों का समूह किरणपुंज कहलाता है।
=एक बिंदु से निकली किरणें अपसारी किरणपुंज कहलाती हैं। ; 
=एक बिंदु की ओर जाती किरणें अभिसारी किरणपुंज कहलाती हैं। 
=एक-दूसरे के समांतर चलती किरणें समांतर किरणपुंज कहलाती हैं। 
=किरण प्रकाशिकी' प्रकाश एवं प्रकाशिक यंत्रों के अध्ययन की एक शाखा है 
 परावर्तन
= किसी वस्तु से प्रकाश- किरणों के टकराकर लौटने की घटना को प्रकाश क परावर्तन (reflection of light) कहते हैं। आपतन के उपरांत वापस लौटत .
प्रकाश के परावर्तन के दो नियम हैं
(i) आपतित किरण, परावर्तित किरण तथा आपतन बिंदु पर खींचा गय अभिलंब तीनों एक ही समतल में होते हैं। (ii) आपतन कोण (i) एवं परावर्तन कोण (7) एक-दूसरे के बराबर होते हैं अर्थात Zi = Lr.
=परावर्तन नियम का अनुपालन करते परावर्तन को 'नियमित परावर्तन' कहते हैं। खुरदरे सतहों पर नियमित परावर्तन नहीं होता है।
= किसी वस्तु से प्रकाश-किरणों के टकराकर लौटने की घटना को प्रकाश का परावर्तन (reflection of light) कहते हैं। आपतन के उपरांत वापस लौटती किरण परावर्तित किरण कहलाती है। 

प्रकाश के परावर्तन के दो नियम हैं"
(i) आपतित किरण, परावर्तित किरण तथा आपतन बिंदु पर खींचा गया अभिलंब तीनों एक ही समतल में होते हैं। (ii) आपतन कोण (i) एवं परावर्तन कोण (7) एक-दूसरे के बरावर होते हैं, अर्थात Zi = Lr.
परावर्तन नियम का अनुपालन करते परावर्तन को 'नियमित परावर्तन' कहते हैं। खुरदरे सतहों पर नियमित परावर्तन नहीं होता है। इसे विसरित परावर्तन कहा जाता है।

दर्पण

=दर्पण वह सतह है जिसपर आपतित प्रकाश का अधिकांश किरणों की ऊर्जा भाग नियमित रूप में परावर्तित हो जाता है।
=दर्पण, सतह की ज्यामिति के अनुसार, समतल या वक्रतलीय होते हैं। इनमें महत्त्वपूर्ण दर्पण दो प्रकार के होते हैं समतल तथा गोलीय ।

प्रतिबिंब
=संकेंद्रित (homocentric) आपतित किरणों का प्रतिच्छेद बिंदु बिंब (वस्तु) कहलाता है, जबकि संकेंद्रित (homocentric) परावर्तित (या अपवर्तित) › •
=किरणों का प्रतिच्छेद बिंदु प्रतिबिंब कहलाता है। 
=किसी वस्तु बिंदु से आती प्रकाश किरणें परावर्तन या अपवर्तन के बाद जिस " बिंदु पर अभिसरित होती (मिलती) हैं या जिस बिंदु से अपसरित होती (फैलती) हुई प्रतीत होती हैं, उस बिंदु को प्रकाशीय प्रतिबिंब-बिंदु कहते हैं । इस प्रकार के प्रतिबिंब बिंदुओं के मिलने से विस्तृत बिंब का पूरा प्रतिबिंब बनता है।  प्रतिबिंब दो प्रकार के होते हैं— 
(i) वास्तविक प्रतिबिंब और (ii) काल्पनिक (आभासी) प्रतिबिंब । 
परावर्तित या अपवर्तित प्रकाश किरणों के वास्तविक कटान से बना हुआ प्रतिबिंब वास्तविक प्रतिबिंब कहलाता है, जबकि परावर्तित या अपवर्तित प्रकाश-किरणों को पीछे बढ़ाने पर जहाँ वे मिलती हैं वहाँ पर बना प्रतिबिंब काल्पनिक (आभासी) प्रतिबिंब कहलाता है। वस्तु की अपेक्षा वास्तविक प्रतिबिंब उलटा होता है, किंतु काल्पनिक प्रतिबिंब सीधा होता है। पर्दे पर वास्तविक प्रतिबिंब को प्राप्त किया जा सकता है, किंतु काल्पनिक प्रतिबिंब को नहीं। 
समतल दर्पण
समतल दर्पण समतल दर्पण पर लंबवत पड़नेवाली प्रकाश की किरण परावर्तन के बाद उसी पथ पर वापस लौट जाती है।
समतल दर्पण का उपयोग चेहरा देखने और 'सोलर कुकर' में सूर्य प्रकाश को बॉक्स के भीतर परावर्तित करने में होता है। 
समतल दर्पण द्वारा बनाया गया प्रतिबिंब हमेशा सीधा, काल्पनिक (आभासी), वस्तु के आकार के बराबर तथा दर्पण के ठीक उतना ही पीछे बनता है जितना वस्तु उसके आगे रहती है।

गोलीय दर्पण
 गोलीय दर्पण दो प्रकार के होते हैं- (i) अवतल तथा (ii) उत्तल । 
गोलीय (अवतल तथा उत्तल) दर्पण जिस गोले का भाग होता है, उस गोले के केंद्र को दर्पण का वक्रता केंद्र (centre of curváture) C कहते हैं और त्रिज्या को दर्पण उसकी की वक्रता - त्रिज्या (radius of curvature) R कहते हैं। 
गोलीय दर्पण के मध्यबिंदु को ध्रुव P कहते हैं और इसको वक्रता-केंद्र C से मिलानेवाली सरल रेखा को मुख्य अक्ष (principal axis) कहते हैं। 
 गोलीय दर्पण प्रकाश के परावर्तन के नियमों का पालन करता है। ध्रुव के निकट तथा छोटे आपतन कोण पर आती किरणें समाक्षीय (paraxial) कहलाती हैं।
गोलीय दर्पण के मुख्य अक्ष के समांतर आपतित समाक्षीय प्रकाश-किरणें दर्पण से परावर्तन के बाद मुख्य अक्ष के जिस बिंदु पर अभिसरित होती हैं (अवतल दर्पण में) या जिस बिंदु से अपसरित होती मालूम पड़ती हैं (उत्तल दर्पण में); उस बिंदु को दर्पण का फोकस कहते हैं। इसे F से निरूपित करते हैं। गोलीय दर्पण के ध्रुव से फोकस की दूरी को उसकी फोकस-दूरी या फोकसांतर कहते हैं। इसे से सूचित करते हैं।
गोलीय दर्पण में वक्रता - त्रिज्या (R) फोकस - दूरी (f) की दुगुनी होती है, अर्थात R = 2f.

दर्पण में चिह्नों की परिपाटी
गोलीय दर्पण से प्रकाश के परावर्तन पर विचार करते समय हम नई कार्तीय चिह्न परिपाटी (new Cartesian sign convention) का उपयोग करते हैं। इस परिपाटी में दर्पण के ध्रुव को मूलबिंदु तथा इसके मुख्य अक्ष को निर्देशांक पद्धति का x-अक्ष मानते हैं। इसके अनुसार, .
(a) वस्तु को हमेशा दर्पण के बाईं ओर रखते हैं।
(b) मुख्य अक्ष के समांतर सभी दूरियाँ दर्पण के ध्रुव से मापी जाती हैं।
(c) धनात्मक x अक्ष की ओर मापी गई दूरियाँ धनात्मक तथा ऋणात्मक x - अक्ष की ओर मापी गई दूरियाँ ऋणात्मक मानी जाती हैं।
(d) धनात्मक yअक्ष के अनुदिश मापी गई दूरियाँ धनात्मक तथा ऋणात्मक y - अक्ष के अनुदिश मापी गई दूरियाँ ऋणात्मक मानी जाती हैं। 
• दर्पण के लिए निर्देशांक परिपाटी-
(i) दर्पण का ध्रुव मूलबिंदु (origin) होता है। 
(ii) मुख्य अक्ष पर आपतित किरण की अभिदिशा में x - अक्ष होता है। 
(iii) मुख्य अक्ष पर y - अक्ष लंब होता है तथा ध्रुव से गुजरता है। 
संकेत – बिंदुवत वस्तु का x-निर्देशांक 4 तथा v द्वारा सूचित किया जाता है। वक्रता-केंद्र तथा फोकस के x-निर्देशांक क्रमश: R तथा f द्वारा निरूपित होते हैं।
गोलीय दर्पण के लिए दर्पण-सूत्र है- 1/v+1/u= 1/f  (x -निर्देशांक), u = वस्तु - दूरी (x - निर्देशांक) और f= फोकस - दूरी (x-निर्देशांक) हैं। अवतल दर्पण के लिए निर्देशांकोंf और R के मान ऋणात्मक (negative) होते हैं, जबकि उत्तल दर्पण के लिए धनात्मक (positive)।
 गोलीय दर्पण का आवर्धन (m), प्रतिबिंब के साइज (h) (y-निर्देशांक) और वस्तु के साइज (h) (y-निर्देशांक) का अनुपात होता है; अर्थात m = 1. गोलीय दर्पण में पाया जाता है कि m=--. h य उत्तल दर्पण
• उत्तल दर्पण द्वारा किसी वस्तु का बना प्रतिबिंब दर्पण के पीछे, उसके फोकस के भीतर होता है और हमेशा काल्पनिक (आभासी), सीधा एवं छोटा ( हासित) होता है।
उत्तल दर्पण द्वारा बनाए गए किसी वस्तु के प्रतिबिंब का स्थान दर्पण से वस्तु की दूरी पर निर्भर करता है ।
(a) यदि वस्तु ध्रुव तथा अनंत के बीच रखी गई हो, तो प्रतिबिंब दर्पण के ध्रुव तथा फोकस के बीच बनता है। 
(b) अनंत पर रखी गई वस्तु का प्रतिबिंब दर्पण के फोकस पर बनता है। यह बिंदु - मात्र होता है।
• चूँकि उत्तल दर्पण किसी वस्तु का हमेशा सीधा तथा वस्तु के आकार से छोटा प्रतिबिंब बनाता है, इसलिए इसका उपयोग मुख्यतः वाहनों के पश्च-दृश्य दर्पणों (rear-view mirrors) के रूप में होता है।

अवतल दर्पण
• अवतल दर्पण द्वारा किसी वस्तु के बनाए गए प्रतिबिंब का आकार और उसकी प्रकृति दर्पण से वस्तु की दूरी पर निर्भर करती है। अवतल दर्पण में वास्तविक तथा काल्पनिक दोनों प्रकार के प्रतिबिंब बन सकते हैं ।
(a) अनंत पर रखी वस्तु का प्रतिबिंब दर्पण के फोकस पर बनता है। यह वास्तविक, उलटा तथा वस्तु के आकार से बहुत छोटा (बिंदु - मात्र) होता है। 
(b) दर्पण के वक्रता - केंद्र से परे ( दूर ) रखी गई वस्तु का प्रतिबिंब दर्पण के फोकस F तथा वक्रता केंद्र C के बीच बनता है। यह वास्तविक, उलटा तथा वस्तु के आकार से छोटा होता है।
(c) दर्पण के वक्रता केंद्र पर रखी गई वस्तु का प्रतिबिंब, दर्पण के वक्रताकेंद्र पर ही बनता है। यह वास्तविक, उलटा तथा वस्तु के आकार के बराबर होता है।
(d) दर्पण के वक्रता-केंद्र तथा मुख्य फोकस के बीच रखी गई वस्तु का प्रतिबिंब, वक्रता - केंद्र से परे बनता है। यह वास्तविक, उलटा तथा वस्तु के आकार से बड़ा होता है ।
(e) दर्पण के फोकस पर रखी गई वस्तु का प्रतिबिंब अनंत पर बनता है। यह वास्तविक, उलटा तथा वस्तु के आकार से काफी बड़ा होता है।
(f) दर्पण के ध्रुव तथा फोकस के बीच रखी गई वस्तु का प्रतिबिंब दर्पण के पीछे बनता है। यह आभासी (काल्पनिक), सीधा तथा वस्तु के आकार से बड़ा होता है। 
• अवतल दर्पणों का उपयोग दाढ़ी बनाने, टॉर्च, सर्चलाइट तथा वाहनों के अग्रदीपों (headlights ) में होता है। डॉक्टर इनका उपयोग मरीजों के शरीर के किसी खास हिस्से जैसे— दाँत, कान आदि को देखने के लिए करते हैं। 
• जब प्रकाश एक पारदर्शी माध्यम से दूसरे पारदर्शी माध्यम में प्रवेश करता है तब उसकी चाल बदल जाती है। तिरछी आपतित किरण अभिलंब की और या अभिलंब से दूर मुड़ जाती है जबकि सतह पर लंबवत आपतित किरण बिना मुड़े ही दूसरे माध्यम में प्रवेश कर जाती (refraction of light) कहते हैं। । इस घटना को प्रकाश का अपवर्तन

प्रकाश के अपवर्तन के दो नियम हैं

अपवर्तन

(1) आपतित किरण, अपवर्तित किरण तथा आपतन-बिंदु पर खींचा गया अभिलंब, तीनों एक ही समतल में होते हैं।

(ii) किन्हीं दो माध्यमों और प्रकाश के किसी निश्चित वर्ण (रंग) के लिए, आपतन कोण की ज्या (sine) तथा अपवर्तन कोण की ज्या (sine) का अनुपात एक नियतांक होता है।

इस नियम को स्नेल का नियम (Snell's law) कहते हैं।

• यदि आपतन कोण । और अपवर्तन कोण, हों, तो अपवर्तन के दूसरे नियम sin i से, sinr = एक नियतांक, जिसे पहले माध्यम के आपेक्षिक दूसरे माध्यम का

से निरूपित करते हैं, अर्थात 721 अपवर्तनांक कहते हैं तथा इसे 721. sinr • जब शून्येतर आपतन कोण पर आपतित प्रकाश की किरण विरल माध्यम से

sin i

सघन माध्यम में जाती है तब वह अभिलंब की ओर मुड़ जाती है।

• जब शून्येतर आपतन कोण पर आपतित प्रकाश की किरण सघन माध्यम से विरल माध्यम में जाती है तब वह अभिलंब दूर हट जाती है।

• विभिन्न माध्यमों में प्रकाश की चाल भिन्न-भिन्न होती है, और यह उस माध्यमं की प्रकृति पर निर्भर करती है।

• निर्वात में प्रकाश की चाल लगभग 3x108 m/s होती है। किसी भी वस्तु द्वारा प्राप्त की जा सकनेवाली महत्तम चाल इस चाल से कम ही होती है।

• किसी माध्यम का (refractive index) निर्वात में प्रकाश की चल (c) और उस माध्यम में प्रकाश की चाल (v) का अनुपात होता है। अपवर्तनांक अपवर्तनांक = c V

• हवा, जल, शीशा एवं हीरे में हीरे का अपवर्तनांक अधिक होता है। • जिस माध्यम का अपवर्तनांक कम होता है उसमें प्रकाश की चाल अधिक होती है। की

• दो माध्यमों के निरपेक्ष अपवर्तनांकों के अनुपात को आपेक्षिक अपवर्तनांक (relative refractive index) कहते हैं।

• यदि एक माध्यम की अपेक्षा दूसरे माध्यम का अपवर्तनांक अधिक हो, तो दूसरे माध्यम को पहले माध्यम से प्रकाशत: सघन (optically denser) कहा जाता है या पहले माध्यम को दूसरे की अपेक्षा प्रकाशतः विरल (optically rarer) कहा जाता है।

• क्रांतिक कोण (Critical angle ) - – सघन माध्यम का वह आपतन कोण जिसके लिए अपवर्तन कोण 90° हो जाए, क्रांतिक कोण कहलाता है।

• यदि सघन माध्यम में आपतन कोण का मान क्रांतिक कोण से अधिक हो, तो संपूर्ण आपतित किरणें सघन माध्यम में ही लौट आती हैं। यह प्रकाश का पूर्ण आंतरिक परावर्तन कहलाता है।

काँच की सिल्ली या पट्टी

• काँच की आयताकार सिल्ली (slab) से प्रकाश के अपवर्तन में आपतित किरण और निर्गत किरण के बीच की लंबवत दूरी को पाश्विक विस्थापन ( lateral displacement) कहते हैं।

• आयताकार सिल्ली से निर्गत किरण का पाश्विक विस्थापन सिल्ली की चौड़ाई बढ़ने पर बढ़ता है साथ ही आपतन कोण के बढ़ने पर भी बढ़ता है।

प्रिज्म

• असमांतर अपवर्तक सतहों से घिरा पारदर्शी माध्यम प्रिज्म (prism) कहलाता है। आपतित किरण प्रथम फलक पर अपवर्तित होकर द्वितीय फलक पर अपवर्तित होती है। निर्गत किरण एवं आपतित किरण के बीच बने कोण को प्रिज्म द्वारा उत्पन्न विचलन का कोण कहा जाता है।

• लाल रंग की प्रकाश-किरण प्रिज्म से गुजरने पर सबसे कम झुकती है जबकि बैंगनी रंग की सबसे ज्यादा।

• प्रयोगशाला में प्रिज्म 5 सतहों वाला काँच का टुकड़ा होता है।
लेंस किसी पारदर्शी पदार्थ का दो पृष्ठों से घिरा एक खंड होता है जिसका कम-से-कम एक पृष्ठ (सतह) वक्रित हो । यदि यह वक्रित पृष्ठ गोलीय हो, लेंस को गोलीय लेंस कहा जाता है। .

गोलीय लेंस

गोलीय लेंस दो प्रकार के होते है– (i) उत्तल लेंस और (ii) अवतल लेंस विरल माध्यम में स्थित उत्तल लेंस प्रकाश किरणों को अभिसारी बनाता है, जबकि इसी माध्यम में स्थित अवतल लेंस इन किरणों को अपसारी बनाता अतः, वायु में स्थित काँच के उत्तल लेंस (convex lens) को अभिसारी लेंस तथा अवतल लेंस (concave lens) को अपसारी लेंस भी कहते हैं। । .

● उत्तल लेंस की दोनों सतहें बाहर की ओर उभरी होती है तथा यह किनारों की अपेक्षा बीच में मोटी होती है। यह समतलोत्तल, अवतलोत्तल एवं उभयोत्तल हो सकता है।

● अवतल लेंस की दोनों सतहें भीतर की ओर वक्रित होती हैं तथा यह किनारों पर बीच की अपेक्षा मोटी होती है। यह समतलावतल, उत्तलावतल एवं उभयावतल • हो सकता है।

● गोलीय लेंसों की प्रत्येक वक्रित सतह एक गोले का भाग होती है। इन गोलों के केंद्रों को लेंस का वक्रता-केंद्र (C) तथा C२) कहते हैं।

● लेंस के पृष्ठों के वक्रता - केंद्रों, C, तथा C2 को मिलानेवाली सरल रेखा को लेंस का मुख्य अक्ष कहते हैं।

• लेंस के मुख्य अक्ष के समांतर और निकटतर प्रकाश-किरणें अपवर्तन के बाद मुख्य अक्ष के जिस बिंदु पर अभिसरित होती हैं (उत्तल लेंस में) या जिस बिंदु से अपसरित होती हुई मालूम पड़ती हैं (अवतल लेंस में) उस बिंदु को लेंस का मुख्य फोकस कहते हैं। लेंस के दो मुख्य फोकस होते हैं। इन्हें F, तथा F2 से निरूपित करते हैं।

• लेंस के पहले पृष्ठ से अपवर्तित होने के बाद मुख्य अक्ष पर स्थित जिस बिंदु से होकर गुज़रनेवाली सभी किरणें लेंस के दूसरे पृष्ठ से बाहर निकलने पर अपनी पूर्व दिशा के समांतर हो जाती हैं, उस बिंदु को लेंस का प्रकाशीय या प्रकाशिक केंद्र (O) कहते हैं। पतले लेंस के बीचोबीच प्रकाशीय केंद्र होता है। लेंस के प्रकाशीय केंद्र और मुख्य फोकस के बीच की दूरी को लेंस की फोकस

दूरी (फोकसांतर) कहते हैं। इसे fसे सूचित करते हैं।

• लेंस के लिए निर्देशांक परिपाटी–

(i) लेंस के प्रकाश - केंद्र पर मूलबिंदु होता है।

(ii) लेंस के प्रधान अक्ष पर आपतित किरण की अभिदिशा (x - अक्ष होता है। (iii) y-अक्ष लेंस के प्रकाश-केंद्र से गुजरता है तथा x - अक्ष पर लंब होता है। संकेत – बिंदुवत वस्तु का x -निर्देशांक 4 तथा बिंदुवत प्रतिबिंब का x-निर्देशांक v द्वारा निरूपित होते हैं। लेंस के द्वितीय प्रधान फोकस का .x-निर्देशांक f द्वारा निरूपित होता है।

1 1 1 -= ● लेंस-सूत्र हैV य f' (x-निर्देशांक) तथा f= फोकस - दूरी (द्वितीय फोकस का x-निर्देशांक) है। जहाँ v = प्रतिबिंब-दूरी (x -निर्देशांक), 4 = वस्तु-दूरी

किसी लेंस द्वारा उत्पन्न आवर्धन (m); प्रतिबिंब के साइज (y -निर्देशांक) (h) और वस्तु के साइज (y-निर्देशांक) (h) का अनुपात होता है, अर्थात m = गोलीय लेंस में पाया जाता है किm = h' h V u

लेंस की शक्ति

1 • प्रकाश - किरण को मोड़ने (बंकन करने) की लेंस की शक्ति को लेंस की क्षमता (power of lens) कहते हैं और इसे द्वितीय फोकस - दूरी के व्युत्क्रम द्वारा व्यक्त किया जाता है। अर्थात, लेंस की क्षमता P = -; जब fमीटर में

फोकस-दूरी (f) '

व्यक्त होता है तब P डाइऑप्टर (D) में व्यक्त होता है। लेंस की क्षमता का SI मात्रक m-1 होता है। [1 D = 1m 1.]

लेंस की क्षमता का वही चिह्न होता है जो चिह्न उसकी फोकस - दूरी का होता है। • निर्देशांक चिह्न परिपाटी के अनुसार, उत्तल लेंस की द्वितीय फोकस - दूरी धनात्मक (positive) और अवतल लेंस की द्वितीय फोकस - दूरी ऋणात्मक (negative) होती है। अतः, उत्तल लेंस की क्षमता धनात्मक और अवतल लेंस की क्षमता ऋणात्मक होती है।

• यदि कई लेंस एक साथ संपर्क (contact) में हों, तो इस लेंस समूह की क्षमता (P), उचित चिह्नों के साथ विभिन्न लेंसों की क्षमताओं (P1, P2, P3, ...) के योग के बराबर होती है। अर्थात, P = P1 + P2 + P3 + ....
उत्तल लेंस

• किसी उत्तल लेंस द्वारा बनाए गए वस्तु के प्रतिबिंब का आकार और उसकी प्रकृति लेंस से वस्तु की दूरी पर निर्भर करती है।

(a) अनंत पर रखी गई वस्तु का प्रतिबिंब लेंस के दूसरे फोकस (F2) पर बनता है। यह वास्तविक, उलटा तथा वस्तु से बहुत छोटा होता है। (b) 2F से परे रखी वस्तु

का प्रतिबिंब F2 तथा 2F2 के बीच बनता है। यह वास्तविक, उलटा तथा वस्तु के आकार से छोटा होता है।.

(c) 2F1 पर रखी वस्तु का प्रतिबिंब 2F2 पर बनता है। यह वास्तविक, उलदा तथा वस्तु के आकार का होता है। P

(d) F तथा 2F के बीच रखी वस्तु का प्रतिबिंब 2F2 से परे बनता है । यह वास्तविक, उलटा तथा वस्तु के आकार से बड़ा होता है।

(e) फोकस F पर रखी वस्तु का प्रतिबिंब अनंत पर बनता है। यह वास्तविक, उलटा तथा वस्तु के आकार से बहुत बड़ा होता है।

(f) फोकस F तथा प्रकाशिक केंद्र के बीच रखी वस्तु का प्रतिबिंब लेंस के उसी ओर बनता है जिस ओर वस्तु है। यह आभासी (काल्पनिक), सीधा तथा वस्तु के आकार से बड़ा होता है।

अवतल लेंस

• अवतल लेंस द्वारा किसी वस्तु का बना प्रतिबिंब हमेशा काल्पनिक (आभासी) एवं छोटा होता है और लेंस के दूसरी ओर फोकस के भीतर होता है। मानव नेत्र व दृष्टि दोष

● " मानव नेत्र (आँख) प्रकृतिप्रदत्त एक मूल्यवान प्रकाशीय यंत्र है जिससे हम अपने चारों ओर के रंग-बिरंगे संसार को देख पाते हैं।

• उस निकटतम बिंदु को जहाँ तक नेत्र (आँख) साफ-साफ देख सकता है, निकट - बिंदु कहते हैं। सामान्य नेत्र के लिए निकट बिंदु की दूरी ( स्पष्ट दर्शन की न्यूनतम दूरी) 25 cm होती है।

• उस दूरस्थ बिंदु को जहाँ तक नेत्र साफ-साफ देख सकता है, दूर-बिंदु कहते हैं। सामान्य नेत्र के लिए दूर-बिंदु अनंत पर होता है।

• आइरिस (iris) गाढ़े (dark) रंग का पेशीय जमाव (muscular assemblage) है जो पुतली (pupil) के आकार (साइज) को नियंत्रित करता है। पुतली नेत्र के अंदर प्रवेश करनेवाले प्रकाश की मात्रा को नियंत्रित (regulate) करती है । जब प्रकाश तीव्र (bright) होता है तब पुतली छोटी हो जाती है और जब प्रकाश धुँधला (dim) होता है तब आइरिस के ढीला होने से पुतली पूरी-पूरी फैल जाती है।

• सिलियरी पेशियों द्वारा नेत्र-लेंस अपने स्थान पर स्थित व नियंत्रित होता है। जब हम निकट की वस्तु को देखते हैं तो सिलियरी पेशियाँ नेत्र-लेंस को दबाती (संपीडित करती) हैं जिससे यह मध्य भाग में फूल जाता (bulges out) है। अतः, नेत्र-लेंस की फोकस - दूरी घट जाती है। इसलिए प्रतिबिंब नेत्र के रेटिना पर बनता है और वस्तु साफ-साफ दिखाई पड़ती है। जब हम दूर की वस्तु को देखते हैं तब सिलियरी पेशियाँ ढीली (relax) हो जाती हैं जिससे नेत्र- लेंस पतला हो जाता है और नेत्र-लेंस की फोकस - दूरी बढ़ जाती है। अतः प्रतिबिंब रेटिना पर बनता है, इसलिए वस्तु साफ-साफ दिखाई पड़ती है। अपनी फोकसदूरी स्वतः समायोजित करने का नेत्र-लेंस का यह गुण (या क्षमता) समंजनक्षमता या समायोजन क्षमता (power of accommodation) कहलाता है।

• जब नेत्र अपनी समंजन क्षमता खो देता है, तब व्यक्ति वस्तुओं को आसानी से स्पष्ट रूप से नहीं देख पाता है।

• नेत्र द्वारा निकट अथवा दूर स्थित वस्तुओं का स्पष्ट नहीं दिखाई पड़ना दृष्टि दोष या दृष्टि वैषम्य कहलाता है। इसकी वजह है प्रतिबिंब का रेटिना (retina) पर नहीं बनना। अतः, रेटिना पर स्पष्ट प्रतिबिंब बनाने की क्षमता में कमी को दृष्टि दोष (defect of vision) कहते हैं।

• मानव नेत्र में दृष्टि दोष मुख्य रूप से तीन प्रकार के होते हैं(i) निकट दृष्टि दोष या निकटदृष्टिता (short-sightedness or myopia), (ii) दूर-दृष्टि दोष या दूरदृष्टिता (far-sightedness or hypermetropia) तथा (iii) जरा - दूरदर्शिता (presbyopia)।

[ उपर्युक्त तीनों दृष्टि दोषों के अतिरिक्त एक अन्य दृष्टि दोष भी होता. है, जिसे अबिंदुकता (astigmatism) कहते हैं ]
• जिस नेत्र में निकट दृष्टि दोष होता है, वह दूर की वस्तुओं को स्पष्ट रूप से नहीं देख पाता है। यह दो कारणों से होता है. नेत्रगोलक

) का लंबा हो जाना तथा (ii) नेत्र-लेंस (eye lens) की फोकस दूरी का घट जाना।

(eyeball

इस दोष को दूर करने के लिए अवतल (concave) या अपसारी (diverging) लेंस का उपयोग किया जाता है। इस उपचारी लेंस द्वारा बना प्रतिबिंब काल्पनिक एवं सीधा होता है।

• जिस नेत्र में दूर-दृष्टि दोष होता है, वह निकट (25cm पर) की वस्तुओं को स्पष्ट रूप से नहीं देख पाता है। यह दो कारणों से होता है(i) नेत्रगोलक का छोटा हो जाना तथा

(ii) नेत्र-लेंस की फोकस दूरी का बढ़ जाना।

इस दोष को दूर करने के लिए उत्तल (convex) या अभिसारी (converging) लेंस का उपयोग किया जाता है। इस उपचारी लेंस द्वारा बना प्रतिबिंब काल्पनिक व सीधा होता है।

नेत्र-लेंस कड़ा (वृद्धावस्था में) हो जाने के कारण उसकी समंजन क्षमता में कमी आ जाती है। इस दृष्टि दोष को जरा दूरदर्शिता कहते हैं और इसके उपचार के लिए द्विफोकसी लेंस (bifocal lens) का उपयोग किया जाता है।

वायुमंडलीय परिघटनाएँ, प्रकीर्णन व वर्ण-विक्षेपण

तारों से आनेवाले प्रकाश के वायुमंडलीय अपवर्तन के कारण, तारे हमें टिमटिमाते हुए दिखाई पड़ते हैं।

.• वायुमंडलीय अपवर्तन के कारण ही सूर्य हमें वास्तविक सूर्योदय से लगभग 2 मिनट पहले ही दिखाई पड़ने लगता है तथा वास्तविक सूर्यास्त के लगभग 2 मिनट बाद तर्क दिखाई पड़ता है।

श्वेत प्रकाश सात रंगों के मिश्रण से बना है। ये सात रंग हैंबैंगनी (violet), जामुनी (indigo), नीला (blue), हरा (green), पीला (yellow), नारंगी (orange) तथा लाल (red)। इसे संक्षेप में बैजानीहपीनाला (VIBGYOR) कहा जाता है।

O काँच का अपवर्तनांक बैंगनी रंग के लिए सर्वाधिक होता है तथा घटते क्रम में VIBGYOR वर्णक्रम में होता है।

● रेटिना में स्थित रॉड (rods) एवं कोन्स (cones) के कारण प्रकाश की तीव्रता एवं रंग की संवेदना होती है।

प्रिज्म एवं स्पेक्ट्रम

• श्वेत प्रकाश-किरण काँच के प्रिज्म के प्रथम सतह पर ही रंगों में विभक्त हो जाती है तथा द्वितीय सतह इन्हें एकजुट नहीं होने देता है।

• श्वेत प्रकाश के अपने घटक (component) रंगों में विभक्त होने की घटना को प्रकाश का वर्ण-विक्षेपण (dispersion of light) कहते हैं।

• प्रिज्म श्वेत प्रकाश को उसके घटक रंगों में विभाजित करता है। यह विभाजन प्रिज्म के विभिन्न रंगों के लिए विभिन्न अपवर्तनांक के कारण होता है। श्वेत प्रकाश के (यां अन्य तरंगों के) अवयवी वर्णों के समूह को स्पेक्ट्रम (spectrum) कहते हैं । • काँच के प्रिज्म

द्वारा श्वेत प्रकाश के वर्ण-विक्षेपण में लाल रंग का विचलन (deviation) सबसे कम और बैंगनी रंग का सबसे अधिक होता है।

• तरंगदैर्घ्य (तरंग लंबाई) वह दूरी है जो किसी तरंग द्वारा एक आवर्तकाल में तय की जाती है। इसका मात्रक वही है जो लंबाई का है। प्रकाश की तरंग लंबाई छोटी होने के कारण छोटे मात्रक ऐंग्स्ट्रम (A) में मापी जाती है। है।

प्रकाश एक विद्युत-चुंबकीय तरंग

• निर्वात

( 1 A = 10-10 m = 10 cm)

प्रकाश की तरंग लंबाई 3800 A से 7800 A तक होती है।

• लाल रंग के प्रकाश का तरंगदैर्घ्य (wavelength) सबसे अधिक और बैंगनी रंग का सबसे कम होता है।

• पीली किरण को माध्यवर्ण की किरण माना जाता है।

• इंद्रधनुष एक प्राकृतिक स्पेक्ट्रम है जो वर्षा के बाद आकाश में दिखाई देता है। यह वायुमंडल में मौजूद जल की सूक्ष्म बूँदों द्वारा सूर्य के प्रकाश के अपवर्तन के दौरान वर्ण विक्षेपण तथा आंतरिक परावर्तन के कारण होता है। इसे देखने के लिए हमारी पीठ सूर्य की ओर होनी चाहिए।

कण द्वारा प्रकीर्णन

• एक कण द्वारा आपतित प्रकाश का सभी दिशाओं में प्रसरण ही प्रकीर्णन कहलाता है।

• किसी वर्ण के प्रकाश का प्रकीर्णन (scattering) उसके तरंगदैर्घ्य पर निर्भर करता है। कम तरंगदैर्घ्य वाले वर्ण के प्रकाश, अधिक तरंगदैर्घ्य वाले वर्ण के प्रकाश की तुलना में अधिक प्रकीर्णित होते हैं।
• प्रकीर्णित प्रकाश का वर्ण, प्रकीर्णन करनेवाले कणों के आकार (size) पर निर्भर करता है। छोटे आकार के कण कम तरंगदैर्घ्य के प्रकाश (जैसे नीला) को अधिक प्रबलता से प्रकीर्ण करते हैं जबकि बड़े आकार के कण सभी तरंगदैर्घ्य के प्रकाश को समान रूप से प्रकीर्ण करते हैं।

• कोलॉइडीय कणों ( colloidal particles ) द्वारा प्रकाश के प्रकीर्णन को टिंडल प्रभाव (Tyndall effect) कहते हैं।

• वायुमंडल में मौजूद सूक्ष्म कणों द्वारा सूर्य के प्रकाश के प्रकीर्णन के कारण ही आकाश हमें नीला दिखाई देता है।

• अंतरिक्ष में चूँकि वायुमंडल नहीं है, इसलिए वहाँ प्रकाश का प्रकीर्णन नहीं होता है। अतः; अंतरिक्षयात्रियों को आकाश काला दिखाई पड़ता है।

विद्युत धारा व ओम का नियम

विद्युत आवेश दो प्रकार के होते हैं – (i) धनात्मक आवेश और (ii) ऋणात्मक आवेश | आवेश का SI मात्रक कूलॉम (कूलंब) है। एक इलेक्ट्रॉन पर 1.6 x 10-19 कूलॉम (C) ऋणात्मक आवेश होता है। एक प्रोटॉन पर इतना ही धन आवेश होता है।

• किसी परमाणु के नाभिक में प्रोटॉनों की संख्या, बाहरी कक्षा में घूमते इलेक्ट्रॉनों की संख्या के बराबर होती है, साथ ही एक प्रोटॉन और एक इलेक्ट्रॉन के आवेश परिमाण में बराबर होते हैं। अतः, परमाणु उदासीन होता है।

• जब कोई वस्तु किसी कारणवश (जैसे रगड़ द्वारा) इलेक्ट्रॉन खोती है तब वह धनावेशित हो जाती है और जब यह इलेक्ट्रॉन प्राप्त करती है तब वह ऋणावेशित हो जाती है।

• किसी स्थिर आवेश के कारण उत्पन्न विद्युत क्षेत्र में इकाई धनात्मक आवेश को एक बिंदु से दूसरे बिंदु तक लाने में किए गए कार्य को उन दो बिंदुओं के बीच विभवांतर कहते हैं, अर्थात विभवांतर

V=

किया गया कार्य, W

स्थानांतरित आवेश, Q

इसका मात्रक जूल प्रति कूलॉम है, जो वोल्ट (V) कहलाता है,

अर्थात 1V = 1J

1C

• किसी स्थिर विद्युत क्षेत्र में इकाई धनात्मक आवेश को अनंत (जहाँ पर विभव शून्य माना जाता है) से किसी बिंदु तक लाने में किए गए कार्य को उस बिंदु पर विभव कहते हैं। अर्थात, V = W/Q. इसका SI मात्रक भी वोल्ट है। • आवेशों के व्यवस्थित प्रवाह को विद्युत धारा कहते हैं।

• किसी चालकं से प्रवाहित विद्युत धारा की प्रबलता उस चालक के किसी अनुप्रस्थ काट से एकांक समय में प्रवाहित आवेश का परिमाण है। यदि 1 सेकंड में 1 कूलॉम आवेश प्रवाहित होता है तो उस अनुप्रस्थ काट से प्रवाहित

ऐम्पियर, विद्युत धारा 1C धारा का मान 1 ऐम्पियर होता है। अर्थात, 1 A = का SI मात्रक है। 1s.

• विद्युत धारा मूल राशि है तथा SI पद्धति में इसका मात्रक ऐम्पियर (A) होता है। इसका संसूचन गैल्वेनोमीटर से होता है।

• विद्युत धारा मापने के लिए ऐमीटर (ammeter) का उपयोग किया जाता है। इसे विद्युत परिपथ में श्रेणीक्रम में (in series) जोड़ा जाता है।

• विभवांतर मापने के लिए वोल्टमीटर (voltmeter) का उपयोग किया जाता है। वोल्टमीटर को हमेशा उन दो बिंदुओं के बीच पार्श्वक्रम (समांतरक्रम, parallel) में जोड़ा जाता है जिनके बीच विभवांतर मापना होता है।

● किसी विद्युत परिपथ में आवेशवाही कणों, यथा इलेक्ट्रॉनों को गतिशील बनाने के लिए जिस युक्ति का उपयोग किया जाता है, उसे सेल (cell) कहते हैं। • सेलों की समूहित व्यवस्था को बैटरी (battery) कहते हैं ।

• किसी सेल का विद्युत वाहक बल (electromotive force) खुले परिपथ में सेलों के इलेक्ट्रोडों के बीच का विभवांतर है।

• ओम का नियम - नियत ताप पर किसी चालक से प्रवाहित विद्युत-धारा (I), चालक के सिरों के बीच के विभवांतर (V) के समानुपाती होती है, अर्थात

1 x V या I =R/V

जहाँ नियतांक R, चालक का प्रतिरोध कहलाता है।
प्रतिरोध एवं इसके नियम

• प्रतिरोध किसी चालक का वह गुण है जो उसमें विद्युत धारा के प्रवाह का विरोध करता है तथा उसे नियंत्रित भी करता है। इसका SI मात्रक ओम (संकेत 52) है। प्रतिरोध की माप विभवांतर एवं प्रवाहित धारा के अनुपात से होती है। •

HII

• ताप बढ़ने से चालक का प्रतिरोध बढ़ता है।

• किसी चालक का प्रतिरोध उसकी लंबाई के समानुपाती तथा उसके अनुप्रस्थ काट के क्षेत्रफल के व्युत्क्रमानुपाती होता है। यह उस पदार्थ की प्रकृति पर भी निर्भर करता है जिससे वह बना है। यदि तार की लंबाई / तथा उसके अनुप्रस्थ काट का क्षेत्रफल A हो, तो उसका प्रतिरोध

R=

जहाँ p एक नियतांक है जिसे उस पदार्थ का विशिष्ट प्रतिरोध (या प्रतिरोधकता) कहते हैं। इसका SI मात्रक ओम मीटर (संकेत 52 m) है।

प्रतिरोधकों का संयोजन

R

(7) p

• यदि किसी परिपथ में कई प्रतिरोधक इस प्रकार जुड़े हों कि परिपथ में सेल जोड़ने पर सभी प्रतिरोधकों से एक ही विद्युत धारा प्रवाहित होती हो, तो सभी प्रतिरोधकों को श्रेणीक्रम में जुड़ा हुआ (श्रेणीबद्ध) कहते हैं।

• यदि किसी परिपथ में कई प्रतिरोधक इस प्रकार जुड़े हों कि परिपथ में सेल जोड़ने पर सभी प्रतिरोधकों के सिरों के बीच एक ही विभवांतर उत्पन्न होता हो, तो सभी प्रतिरोधकों को समांतरक्रम में जुड़ा हुआ (पार्श्वबद्ध) कहते हैं।

• श्रेणीक्रम में जुड़े प्रतिरोधकों का तुल्य प्रतिरोध (equivalent resistance) Rs, सभी प्रतिरोधकों के प्रतिरोधों के योग के बराबर होता है। यदि R1, R2, R3, प्रतिरोध के प्रतिरोधक श्रेणीक्रम में जुड़े हों, तो उनका तुल्य प्रतिरोध

R, प्रत्येक प्रतिरोध से बड़ा होता है।

R· = R1 + R2 + R3,

• पार्श्वक्रम (समांतरक्रम) में जुड़े R1, R2, R3, तुल्य प्रतिरोध R, निम्नांकित प्रकार से व्यक्त किया जाता है। प्रतिरोध के प्रतिरोधकों का,

R, प्रत्येक प्रतिरोधक से छोटा होता है।

1 1 1 1 Rp R1 R2 R 3 + +

विद्युत शक्ति व ऊष्मा

+

• जब किसी चालक में विद्युत धारा प्रवाहित की जाती है तब विद्युत धारा द्वारा उत्पन्न ऊष्मा का परिमाण धारा द्वारा चालक के प्रतिरोध के विरुद्ध किए गए कुल कार्य के बराबर होता है ।

• यदि किसी R प्रतिरोध के प्रतिरोधक से होकर I विद्युत धारा 1 समय तक प्रवाहित होती है, और यदि प्रतिरोधक के सिरों के बीच विभवांतर V हो, तो संपन्न कार्य W = VIt.

• यह कार्य (SI प्रणाली में) उत्पन्न ऊष्मा के बराबर होता है। अतः उत्पन्न ऊष्मा का परिमाण V2

H = W = VIt = I Rt

• किसी धारावाही चालक में उत्पन्न ऊष्मा का परिमाण

= 1. R :

(i) विद्युत धारा के वर्ग (12) के, (ii) चालक के प्रतिरोध (R) के तथा (iii) विद्युत धारा के प्रवाह के समय (1) के समानुपाती होता है; जिसे जूल का ऊष्मीय नियम कहते हैं।

• किसी विद्युत परिपथ में उपभुक्त अथवा क्षयित विद्युत ऊर्जा की दर को विद्युत शक्ति कहते हैं।

विद्युत-शक्ति, P===VI="PR==

V2

R

ANTW

विद्युत शक्ति का SI मात्रक वाट (W) है।

1 W= 1 V × 1 A.

• विद्युत ऊर्जा का व्यापारिक मात्रक किलोवाट घंटा (संकेत में, kWh) है जिसे हम सामान्यतः यूनिट (unit) कहते हैं। 1 kWh = ( 1000 W ) x (60x60s) = 1000 W x 3600s

= 3.6 x 10° J.

● विद्युत धारा के ऊष्मीय प्रभाव का उपयोग इलेक्ट्रिक आयरन, टोस्टर, गीजर, विद्युत बल्ब आदि में होता है।
विद्युत बल्ब में फिलामेंट (तंतु) टंग्स्टन का इसलिए बनाया जाता है कि इसका गलनांक बहुत अधिक (लगभग 3400 °C) होता है। अतः यह बिना गले 2700°C का श्वेत- तप्त ताप प्राप्त कर सकता है। चूँकि टंग्स्टन की प्रतिरोधकता कम है, इसलिए इसका पतला और लंबा तारं (कुंडली के रूप में) लेना पड़ता है ताकि प्रतिरोध अधिक हो और ऊष्मा अधिक उत्पन्न हो ।

विद्युत धारा का चुंबकीय प्रभाव एवं विद्युतचुंबकत्व, डायनेमो, मोटर

• यदि किसी धारावाही चालक के चारों ओर चुंबकीय क्षेत्र (magnetic field) उत्पन्न होता है, तो यह विद्युत धारा का चुंबकीय प्रभाव कहलाता है।

दिक्सूचक (चुंबकीय सूई) एक छोटा चुंबक है जो अपने केंद्र के इर्द-गिर्द स्वतंत्रतापूर्वक घूम सकता है। इसे स्वतंत्रतापूर्वक लटकाने पर यह उत्तर-दक्षिण दिशा में रहता है। इसका एक सिरा, जो उत्तर दिशा की ओर संकेत करता है, उत्तर ध्रुव कहलाता है तथा दूसरा सिरा, जो दक्षिण दिशा की ओर संकेत करता है, दक्षिण ध्रुव कहलाता है। ●

• चुंबकीय क्षेत्र -रेखाएँ बंद वक्र हैं जो माध्यम में चुंबक के उत्तर ध्रुव से निकलकर उसके दक्षिण ध्रुव तक जाती हैं तथा चुंबक के भीतर उसके दक्षिण ध्रुव से चलकर उसके उत्तर ध्रुव तक आती हैं।

• चुंबकीय क्षेत्र - रेखा के किसी बिंदु पर खींची गई स्पर्शरेखा (tangent) उस बिंदु पर रखे एकांक उत्तर ध्रुव पर आरोपित बल की दिशा बताती है। चुंबकीय क्षेत्र -रेखाएँ कभी एक-दूसरे को नहीं काटती हैं। •

● चुंबकीय क्षेत्र का SI मात्रक टेसला (tesla, संकेत T) होता हैं जो न्यूटन प्रति ऐम्पियर प्रति मीटर (N/A m) के बराबर होता है। अर्थात, 1T = 1 (N/Am).

• जब किसी चालक से विद्युत धारा प्रवाहित की जाती है तो उसके चारों ओर एक चुंबकीय क्षेत्र उत्पन्न हो जाता है। चालक तार के चारों ओर चुंबकीय क्षेत्र -रेखाएँ अनेक संकेंद्री वृत्तों ( concentric circles) के रूप में होती हैं जिनकी दिशा मैक्सवेल के दक्षिण-हस्त अँगुष्ठ नियम (Maxwell's right-hand thumb (rule) द्वारा दी जाती है।

मैक्सवेल के दक्षिण-हस्त अँगुष्ठ नियम के अनुसार, यदि धारावाही तार को दाएँ थकी मुट्ठी में इस प्रकार पकड़ा जाए कि अंगूठा विद्युत धारा की दिशा की ओर संकेत करता हो, तो हाथ की अन्य अँगुलियाँ चुंबकीय क्षेत्र की दिशा व्यक्त करेंगी।

• पास-पास लिपटे, पर एक-दूसरे से अलग विद्युतरोधित ताँबे के तार की बेलन की आकृति की अनेक फेरोंवाली कुंडली को परिनालिका (solenoid) कहते हैं। परिनालिका जिस रचना पर लिपटी होती है, उसे क्रोड (core) कहा जाता है।

• एक धारावाही परिनालिका (current-carrying solenoid) का चुंबकीय क्षेत्र एक दंड़ चुंबक (bar magnet) के चुंबकीय क्षेत्र की तरह होता है।

• विद्युत चुंबक में मुख्यतः नरम लोहे का एक क्रोड होता है जिसके चारों ओर

विद्युतरोधित ताँबे के तार की एक कुंडली लपेटी हुई रहती है। कठोर इस्पात तथा मिश्रधातु का उपयोग स्थायी चुंबक बनाने में होता है, जबकि नरम लोहे का उपयोग अस्थायी चुंबक बनाने में होता है।

कोई धारावाही चालक चुंबकीय क्षेत्र में रखने पर एक बल का अनुभव करता

है। इस तथ्य का उपयोग विद्युत मोटर बनाने में किया जाता है। चालक पर लगनेवाले बल की दिशा फ्लेमिंग के वाम-हस्त नियम (Fleming's left-hand rule) द्वारा दी जाती है।

• फ्लेमिंग के वाम-हस्त नियम के अनुसार, यदि हम अपने बाएँ हाथ की तीन अँगुलियों- - मध्यमा (middle finger), तर्जनी (forefinger) तथा अँगूठे (thumb). -को परस्पर लंबवत फैलाएँ और यदि तर्जनी चुंबकीय क्षेत्र की दिशा तथा मध्यमा धारा की दिशा को दर्शाते हैं, तब अँगूठा धारावाही चालक पर लगे बल की दिशा को व्यक्त करता है।

• विद्युत मोटर, विद्युत ऊर्जा को यांत्रिक ऊर्जा में परिवर्तित करता है। विद्युत पंखे, धुलाई की मशीन, मिक्सर इत्यादि में विद्युत मोटर का उपयोग होता है।

• जब किसी कुंडली और किसी चुंबक के बीच आपेक्षिक गति होती है तो कुंडली में एक विद्युत वाहक बल प्रेरित होता है जिसके कारण कुंडली में एक विद्युत धारा प्रेरित होती है। यह प्रेरित धारा तब तक प्रवाहित होती रहती है जब तक कुंडली से होकर जानेवाली चुंबकीय क्षेत्र रेखाओं की संख्या में परिवर्तन होता रहता है। इस घटना को विद्युत-चुंबकीय प्रेरण (electromagnetic induction) कहते हैं। • विद्युत-चुंबकीय प्रेरण के फलस्वरूप प्रेरित विद्युत धारा की दिशा फ्लेमिंग के दक्षिण-हस्त नियम (Fleming's right-hand rule) से दी जाती है।

• फ्लेमिंग के दक्षिण-हस्त नियम के अनुसार, यदि दाहिने हाथ का अंगूठा (thumb), तर्जनी (forefinger) और मध्यमा (middle finger) परस्पर समकोणिक इस प्रकार रखे गए हों कि तर्जनी चुंबकीय क्षेत्र की दिशा को संकेत करती हो और अँगूठा गति की दिशा में हो, तो मध्यमा प्रेरित धारा की दिशा का संकेत करेगी।
मध्यमा धारा

तर्जनी चुम्बकीय क्षेत्र

अँगूठा : गति या बल

• विद्युत जनित्र (electric generator), यांत्रिक ऊर्जा को विद्युत ऊर्जा में परिवर्तित करता है। यह विद्युत चुंबकीय प्रेरण के सिद्धांत पर कार्य करता है। • दिक्परिवर्तक (commutator) एक ऐसी युक्ति है जो किसी परिपथ में विद्युतधारा के प्रवाह की दिशा को उत्क्रमित कर देती है।

• ऐसी विद्युत धारा जिसकी दिशा में समय के साथ परिवर्तन नहीं होता हो, दिष्ट धारा (direct current या dc.) कही जाती है।

● ऐसी युक्ति जो दिष्ट धारा उत्पन्न करती है, दिष्ट धारा जनित्र (d.c. generator) कही जाती है।

• ऐसी विद्युत धारा जो समय के साथ आवर्त रूप से बदलती हो और प्रत्येक आधे चक्र (cycle) के बाद अपनी दिशा उलट देती हो, प्रत्यावर्ती धारा (alternating current या ac.) कही जाती है। ट्रांसफॉर्मर ( transformer) द्वारा प्रत्यावर्ती धारा की वोल्टता

(voltage) बढ़ाई या घटाई जा सकती है।

ऐसी युक्ति जो प्रत्यावर्ती धारा उत्पन्न करती है प्रत्यावर्ती-धारा जनित्र (a.c. generator) कही जाती है।

जनित्र या डायनेमो दो प्रकार के होते हैं— प्रत्यावर्ती-धारा डायनेमो और दिष्ट-धारा डायनेमो। प्रत्यावर्ती-धारा डायनेमो में दो सर्पी वलय होते हैं, जबकि दिष्ट-धारा डायनेमो में एक विभक्त वलय (दिक्परिवर्तक) होता है। प्रत्यावर्ती-धारा डायनेमो प्रत्यावर्ती धारा उत्पन्न करता है, जबकि दिष्ट-धारा डायनेमो दिष्ट धारा उत्पन्न करता है ।

घरेलू विद्युत आपूर्ति

• हमारे घरों में 220V 50Hz की प्रत्यावर्ती धारा की विद्युत शक्ति की आपूर्ति होती है। हमारे घरों में यह आपूर्ति दो मोटे तारों द्वारा की जाती है। इन तारों में से एक तार, जिसपर लाल रंग का विद्युतरोधी आवरण लगा रहता है, को विद्युन्मय या जीवित (live) यो धनात्मक (positive) तार कहते हैं। दूसरे तार, जिसपर काले

रंग का विद्युतरोधी आवरण लगा रहता है, को उदासीन ( neutral) या ऋणात्मक (negative) तार कहते हैं। इन दोनों तारों के बीच विभवांतर 220 V होता है। घरों के वायरिंग (wiring) में एक तीसरा तार भी होता है जिसपर हरे रंग का विद्युतरोधी आवरण लगा रहता है। इसे भूसंपर्क तार (earth wire) कहते हैं और यह घर के निकट पृथ्वी के भीतर काफी गहराई पर स्थित धातु की प्लेट से जुड़ा रहता है।

घरेलू परिपथ में स्विच हमेशा विद्युन्मय तार (live wire) के साथ श्रेणीक्रम में

(in series) जोड़ा जाता है।

• जब किसी चालक से विद्युत धारा का प्रवाह होता है तब वह गर्म हो जाता है। यदि किसी विद्युतीय उपकरण द्वारा खींची गई धारा चालक तार की सुरक्षा सीमा ( safety limit) से अधिक हो जाती है, तो चालक तार अत्यधिक गर्म हो जाता है। इसे अतिभारण (overloading) कहते हैं।

यदि किसी प्रकार धनात्मक तथा ऋणात्मक तार संपर्क में आ जाते हैं, तो विद्युत परिपथ में प्रतिरोध लगभग नगण्य हो जाता है और परिपथ में धारा अत्यधिक बढ़ जाती है। इसे लघुपथन (short circuiting) कहते हैं। इसके कारण चालक तार अत्यधिक गर्म हो जाता है और इससे आग भी लग सकती है। विद्युत परिपथों के अतिभारण (overloading) तथा लघुपथन

(short circuiting) से बचाव के लिए सबसे आवश्यक सुरक्षा युक्ति फ्यूज (fuse) है।

• फ्यूज या फ्यूज तार, मिश्रधातु के तार का बना हुआ टुकड़ा होता है जिसका प्रतिरोध अधिक तथा गलनांक कम होता है। इसे विद्युत परिपथ में श्रेणीक्रम में जोड़ा जाता है। जब परिपथ में प्रवाहित धारा का मान निर्दिष्ट मान से अधिक. हो जाता है, तब फ्यूज तार के ताप में अत्यधिक वृद्धि होती है। फलस्वरूप, फ्यूज तार गल जाता है जिससे परिपथ भंग हो जाता है। ।

ऊर्जा स्रोत

• कार्य करने की क्षमता को ऊर्जा ( energy) कहते हैं।
• ऊर्जा के अच्छे स्रोत की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं(i) जो सुलभ हो

(ii) जो प्रति इकाई द्रव्यमान या आयतन अधिक कार्य कर सके (iii) जिसका परिवहन और भंडारण सुविधापूर्वक किया जा सके (iv) जो अधिक महँगा न हो

• ऐसे पदार्थों को ईंधन (fuels) कहते हैं, जो दहन (combustion) करने पर ऊष्मा उत्पन्न करते हैं।

• ऊर्जा के स्रोतों का वर्गीकरण नवीकरणीय स्रोत ( renewable source) और अनवीकरणीय स्त्रोत (nonrenewable source) के रूप में किया जाता है।


-

नवीकरणीय स्रोत वे हैं जो लंबी अवधि तक ऊर्जा प्रदान करते हैं। सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, बहते हुए जल की ऊर्जा, महासागर या सागर की तरंगों से प्राप्त ऊर्जा आदि ऊर्जा के नवीकरणीय स्रोतों के कुछ उदाहरण हैं।

• अनवीकरणीय स्रोत वे हैं जो प्राकृतिक तरीके से उत्पन्न हुए हैं, जिनकी आपूर्ति सीमित है तथा जो हमारे द्वारा उत्पन्न नहीं किए जा सकते हैं। कोयला, पेट्रोलियम पदार्थ, प्राकृतिक गैस आदि ऊर्जा के अनवीकरणीय स्रोतों के कुछ उदाहरण हैं। पृथ्वी पर ऊर्जा •

का मुख्य स्रोत सौर ऊर्जा (solar energy) है। • सौर ऊर्जा

की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं।

(a) यह मुफ्त तथा नवीकरणीय है। (b) यह सभी जगह उपलब्ध है।

(c) इसके उपयोग से प्रदूषण नहीं फैलता है।

• पृथ्वी पर प्रति एकांक वर्गमीटर पर प्रति सेकंड पड़नेवाले सौर ऊर्जा की मात्रा को सौर नियतांक (solar constant) कहते हैं और इसका मानक मान 1:4kW/m2 होता है।

• ऊर्जा के ऐसे स्रोत जो बहुत समय से उपयोग में लाए जा रहे हैं, ऊर्जा के पारंपरिक स्रोत (conventional sources of energy ) कहे जाते हैं। पारंपरिक स्रोत हैं— लकड़ी, कोयला, पेट्रोलियम पदार्थ इत्यादि ।

• ऊर्जा के ऐसे स्रोत जो कुछ ही समय पहले से उपयोग में लाए जा रहे हैं, ऊर्जा के वैकल्पिक या गैर-परंपरागत स्रोत (nonconventional sources of energy) कहे जाते हैं। ये हैं — सौर ऊर्जा, भूतापीय ऊर्जा, महासागर या सागर की लहरों से प्राप्त ऊर्जा, नाभिकीय ऊर्जा इत्यादि ।

जीवाश्म ईंधन

- • जीवाश्म ईंधन (fossil fuels) के उदाहरण हैं— कोयला, पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस ।

• जीवाश्म ईंधन को जलाने से कार्बन, नाइट्रोजन और सल्फर के ऑक्साइड निर्मुक्त होते हैं। इनके कारंण अम्ल वर्षा (acid rain) होती है।

• कार्बन डाइऑक्साइड जैसी गैसों द्वारा ग्रीनहाउस प्रभाव (greenhouse effect) भी होता है।

के शरीर से या जंतुओं के उत्सर्जी पदार्थ से प्राप्त हो जैवमात्रा या जीवद्रव्यमान (biomass) कहलाता है। गोबर, फसलों के कटने के पश्चात बचे अवशिष्ट, सब्जियों के अवशिष्ट आदि जैवमात्रा के उदाहरण हैं।

• कोई भी कार्बनिक पदार्थ जो पौधों

• जैवमात्रा के अपघटन से जैवगैस या बायोगैस (biogas) प्राप्त होती है, जिसमें 75% मेथेन (CH4), लगभग 23% कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) तथा लगभग 2% दूसरी गैसें होती हैं।

• जैवगैस की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं।

(a) यह एक उत्तम ईंधन है जिसके जलने पर धुआँ नहीं निकलता है।

(b) इसके जलने पर कोई अवशेष नहीं बचता है।

(c) जैवगैस प्लांट से निकला कीच या गारा ( slurry) एक उत्तम कोटि का उर्वरक (fertilizer) है।

1 (d) जलावन के रूप में इसके उपयोग से लकड़ी की बचत होती है। जल ऊर्जा

• जल विद्युत, ऊर्जा का नवीकरणीय (renewable) स्रोत है।

• ।

जल विद्युत के लाभ निम्नलिखित हैं

(i) ऊर्जा का यह स्रोत नवीकरणीय और प्रदूषण मुक्त है।

(ii) जल विद्युत संयंत्र के लिए जो बाँध बनाए जाते हैं वे बाढ़-नियंत्रण (flood control) और सिंचाई (irrigation) में भी सहायता करते हैं।
पवन ऊर्जा

• पवन ऊर्जा का उपयोग यांत्रिक कार्य करने तथा विद्युत उत्पन्न करने में किया जाता है।

• पवन-चक्की की घूर्णी गति का उपयोग विद्युत उत्पन्न करने के लिए होता है। • पवन ऊर्जा फार्म में कई पवन-चक्कियाँ एक साथ एक बड़े क्षेत्र में स्थापित की जाती हैं।

• पवन ऊर्जा के निम्नलिखित लाभ हैं।

(a) इसका स्रोत (वायु) मुफ्त प्राप्त होता है तथा यह नवीकरणीय है। (b) इससे प्रदूषण नहीं फैलता है।

• पवन ऊर्जा से कार्य लेने की निम्नलिखित सीमाएँ हैं।

(a) इससे कार्य करने के लिए वायु की न्यूनतम गति 15 किलोमीटर प्रति घंटा होनी चाहिए।.

. (b) यह ऊर्जा का भरोसेमंद स्रोत नहीं है, क्योंकि वायु कभी-कभी बिलकुल शांत रहती है तथा कभी-कभी तूफान भी आ जाता है। (c) पवन ऊर्जा फार्म को स्थापित करना काफी महँगा है।

• सौर ऊर्जा

• बॉक्स-टाइप का सोलर कुकर (solar cooker) दो से तीन घंटों में 100–140 °C तक का ताप प्राप्त कर लेता है।

सोल कुकर के लाभ निम्नलिखित हैं।

(i) ये सस्ते होते हैं।

(ii) ये धुआँ उत्पन्न नहीं करते हैं।

(iii) ये अन्य ईंधनों (जैसे लकड़ी, LPG आदि) की खपत को कम करते हैं। 2016 • सोलर कुकर की सीमाएँ निम्नलिखित हैं।

(i) इनका उपयोग केवल दिन के समय ही किया जा सकता है।

(ii) बादल वाले दिनों में भोजन पकाने में अधिक समय लगता है।

(iii) रोटी पकाने या भोजन तलने में इनका उपयोग नहीं किया जा सकता है। • सोलर सेल, सौर ऊर्जा को सीधे विद्युत-ऊर्जा में परिवर्तित करता है। एक प्रारूपी सोलर सेल 0.5-1V की वोल्टता उत्पन्न करता है और लगभग 0.7 W विद्युत उत्पन्न कर सकता है।

• सोलर सेल से विद्युत उत्पन्न करने के लाभ निम्नलिखित हैं। (i) इससे प्रदूषण नहीं होता है।

(ii) इसके रख-रखाव (maintenance) में कम खर्च आता है। (iii) इसमें कोई चल-हिस्से ( moving parts) नहीं होते हैं।

सोलर पैनल (solar panel) कई सोलर सेलों का समूह होता है, जिससे पर्याप्त मात्रा में विद्युत उत्पन्न की जाती है।

• सोलर पैनल से विद्युत उत्पन्न करने की निम्नलिखित सीमाएँ हैं। (a) सोलर पैनल को स्थापित करना काफी खर्चीला है।
(b) सोलर पैनल में विभिन्न सोलर सेलों के बीच संपर्क स्थापित करने के लिए चाँदी का उपयोग होता है, जो महँगा है।

(c) इससे हमें दिष्ट धारा मिलती है जबकि हमारे बहुत से विद्युतीय उपकरण प्रत्यावर्ती धारा पर कार्य करते हैं। अतः, इससे प्राप्त दिष्ट धारा को प्रत्यावर्ती धारा में बदलना होता है।

(d) प्रकाश से विद्युत में परिवर्तन की क्षमता कम (लगभग 30%) है। सागर-तापीय ऊर्जा .

• महासागरों के पृष्ठ के जल तथा इनकी सतह से 2 km नीचे के जल के तापों के अंतर का उपयोग सागरीय तापीय ऊर्जा रूपांतर विद्युत संयंत्र ( Ocean Thermal Energy Conversion Plant या OTEC विद्युत संयंत्र) में ऊर्जा प्राप्त करने के लिए किया जाता है। इससे ऊर्जा प्राप्त करने के लिए दोनों जगहों पर जल के तापों में न्यूनतम 20°C का अंतर होना आवश्यक है।

भूतापीय ऊर्जा

• पृथ्वी के अंदर का ताप बहुत अधिक है जिसके कारण अंदर की चट्टानें पिघल जाती हैं। भूगर्भीय परिवर्तनों (geological changes) के कारण पिघली हुई चट्टानें ऊपर की ओर धकेल दी जाती हैं जो कुछ स्थलों पर एकत्रित हो जाती हैं। इन स्थलों को तप्त स्थल ( hot spot) कहते हैं।

• तप्त स्थल, भूतापीय ऊर्जा (geothermal energy) के स्रोत हैं। सूर्य ही पवन ऊर्जा तथा सौर ऊर्जा का मूल स्रोत है।

भूतापीय ऊर्जा और नाभिकीय ऊर्जा सूर्य से प्राप्त ऊर्जा नहीं हैं। नाभिकीय ऊर्जा ●

• नाभिकीय विखंडन में किसी भारी परमाणु का अस्थायी नाभिक मध्यम भार के दो नाभिकों में खंडित हो जाता है और साथ में विशाल ऊर्जा निर्मुक्त होती है। मंद-वेग वाले न्यूट्रॉन की बमबारी से U-235 और Pu-239 का नाभिकीय विखंडन होता है।

• नियंत्रित नाभिकीय विखंडन एक नाभिकीय संयंत्र में कराया जाता है। परमाणु बम एक अनियंत्रित नाभिकीय विखंडन का उदाहरण है।

• नाभिकीय संलयन में अति उच्च ताप पर दो हलके नाभिक एक भारी नाभिक बनाने के लिए संयोग करते हैं और साथ में विशाल ऊर्जा निर्मुक्त होती है। संलयन के लिए नाभिकों को अति उच्च वेग के साथ एक-दूसरे के पास पहुँचना चाहिए ताकि वे विद्युत प्रतिकर्षण को जीत सकें और करीब 10-14 मीटर से कम दूरी पर आ जाएँ।

• सूर्य नाभिकीय संलयन का एक प्राकृतिक उदाहरण है। इसमें हाइड्रोजन-नाभिकों का संलयन होता है जिससे हीलियम बनता है एवं प्रचंड ऊर्जा निर्मुक्त होती है। यह ऊर्जा ही सौर ऊर्जा कहलाती है।



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