प्रश्न 1. मौलिक अधिकारों का अर्थ और परिभाषा लिखिए।
उत्तर :वे अधिकार, जो मानव-जीवन के लिए मौलिक तथा अपरिहार्य होने के कारण संविधान द्वारा नागरिकों को प्रदान किए जाते हैं, ‘मौलिक अधिकार’ कहलाते हैं। व्यवस्थापिका तथा कार्यपालिका द्वारा इनका उल्लंघन नहीं किया जा सकता है। देश की न्यायपालिका एक प्रहरी की भाँति इन अधिकारों की सुरक्षा करती है। राज्य का मुख्य उद्देश्य नागरिकों का चहुंमुखी विकास व उनका कल्याण करना है। इसलिए संविधान द्वारा नागरिकों को मौलिक अधिकार प्रदान किए जाते हैं। भारतीय संविधान द्वारा भी इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए नागरिकों को मौलिक अधिकार प्रदान किए गए हैं। जी० एन० जोशी का कथन है, “मौलिक अधिकार ही ऐसा साधन है, जिसके द्वारा एक स्वतन्त्र लोकराज्य के नागरिक अपने सामाजिक, धार्मिक तथा नागरिक जीवन का आनन्द उठा सकते हैं। इनके बिना लोकतन्त्रीय शासन सफलतापूर्वक नहीं चल सकता और बहुमत की ओर से अत्याचारों का खतरा बना रहता है।”
प्रश्न 2. बन्दी प्रत्यक्षीकरण से क्या अभिप्राय है?
उत्तर :बन्दी प्रत्यक्षीकरण एक प्रकार का न्यायालयीय आदेश होता है। न्यायालय बन्दी बनाये गये व्यक्ति अथवा उसके सम्बन्धी की प्रार्थना पर यह आदेश दे सकता है कि बन्दी व्यक्ति को उसके सामने उपस्थित किया जाए। तत्पश्चात् न्यायालय यह जाँच कर सकता है कि बन्दी की गिरफ्तारी कानून के अनुसार वैध है अथवा नहीं। यह अधिकार नागरिक की व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की रक्षा करता है।
प्रश्न 3. भारतीय नागरिकों के मूल अधिकारों पर किन परिस्थितियों में प्रतिबन्ध लगाया जा सकता है ?
उत्तर :भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त मूल अधिकार निरपेक्ष नहीं हैं। इन पर राष्ट्र की एकता, अखण्डता, शान्ति एवं सुरक्षा तथा अन्य राष्ट्रों के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों के आधार पर प्रतिबन्ध लगाया जा सकता है। संविधान द्वारा अग्रलिखित परिस्थितियों में नागरिकों के मौलिक (मूल) अधिकारों पर प्रतिबन्ध लगाये जाने की व्यवस्था की गयी है –
1. आपातकालीन स्थिति में नागरिकों के मूल अधिकार स्थगित किये जा सकते हैं।
2. संविधान में संशोधन करके नागरिकों के मूल अधिकार कम या समाप्त किये जा सकते हैं।
3. सेना में अनुशासन बनाये रखने की दृष्टि से भी इन्हें सीमित या नियन्त्रित किया जा सकता है।
4. जिन क्षेत्रों में मार्शल लॉ (सैनिक कानून) लागू होता है वहाँ भी मूल अधिकार स्थगित हो जाते
5. नागरिकों द्वारा मूल अधिकारों का दुरुपयोग करने पर सरकार इन्हें निलम्बित कर सकती है।
प्रश्न 5.नीति-निदेशक तत्त्वों को संविधान में समाविष्ट करने का क्या उद्देश्य है ?
उत्तर :भारतीय संविधान में केन्द्र तथा राज्य सरकारों के मार्गदर्शन के लिए कुछ सिद्धान्त दिये गये हैं, जिन्हें राज्य के नीति-निदेशक सिद्धान्त या तत्त्व कहा जाता है। संविधान में इन तत्त्वों का समावेश करने का प्रमुख उद्देश्य भारत में वास्तविक लोकतन्त्र और समाजवादी एवं कल्याणकारी शासन की स्थापना करना है। इसके अतिरिक्त, सामाजिक पुनर्निर्माण, आर्थिक विकास, सांस्कृतिक प्रगति तथा अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति की स्थापना भी नीति-निदेशक तत्त्वों के उद्देश्य हैं।
प्रश्न 6.नीति-निदेशक सिद्धान्तों की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :नीति-निदेशक तत्त्वों की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं –
(1) संविधान का उद्देश्य – संविधान की प्रस्तावना में संविधान का उद्देश्य लोक-कल्याणकारी राज्य की स्थापना करना बताया गया है। नीति-निदेशक तत्त्व इस उद्देश्य को साकार रूप देते हैं। राज्य अधिक-से-अधिक प्रभावी रूप में, ऐसी सामाजिक व्यवस्था तथा सुरक्षा द्वारा जिसमें आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक न्याय भी प्राप्त हो, जनता के हित के विकास को प्रयत्न करेगा और राष्ट्रीय जीवन की प्रत्येक संस्था को इस सम्बन्ध में सूचित करेगा। इस प्रकार नीति-निदेशक तत्त्व आर्थिक तथा सामाजिक प्रजातन्त्र की स्थापना कर एक समाजवादी पद्धति के समाज की स्थापना करना चाहते हैं।
(2) अनुदेश पत्र – राज्य के नीति-निदेशक तत्त्व ऐसे निर्देश हैं, जिनका पालन राज्य की व्यवस्थापिका तथा कार्यपालिका को करना चाहिए।
(3) वैधानिक बल का अभाव – नीति-निदेशक तत्त्व यद्यपि संविधान के अंग हैं, फिर भी उन्हें 1किसी न्यायालय द्वारा लागू नहीं किया जा सकता।
(4) देश के शासन के आधारभूत सिद्धान्त – ये सिद्धान्त मूलभूत सिद्धान्त माने जाएँगे। राज्य का यह कर्त्तव्य होगा कि कानून का निर्माण करते समय वह इन सिद्धान्तों को ध्यान में रखे। प्रशासकों के लिए ये सिद्धान्त एक आचरण संहिता हैं, जिनका अनुपालन वे अपने दायित्वों को | निभाते समय करेंगे। न्यायालय भी न्याय करते समय इन सिद्धान्तों को प्राथमिकता प्रदान करेंगे।
प्रश्न 7.नीति-निदेशक तत्त्वों की आलोचना का आधार बताइए।
उत्तर :नीति-निदेशक तत्त्वों की आलोचना के मुख्य आधार निम्नलिखित हैं –
(1) कानूनी शक्ति का अभाव – कुछ आलोचक इने तत्त्वों को किसी भी दृष्टि से महत्त्वपूर्ण नहीं मानते। उनका यह तर्क है कि जब सरकार इन्हें मानने के लिए कानूनी रूप से बाध्य ही नहीं है, तो इनका कोई महत्त्व नहीं है। इन सिद्धान्तों पर व्यंग्य करते हुए प्रो० के० टी० शाह ने लिखा है। कि, “ये सिद्धान्त उस चेक के समान हैं, जिसका भुगतान बैंक केवल समर्थ होने की स्थिति में ही कर सकता है।”
(2) निदेशक तत्त्व काल्पनिक आदर्श मात्र – आलोचकों के अनुसार नीति-निदेशक तत्त्व व्यावहारिकता से कोसों दूर केवल एक कल्पना मात्र हैं। इन्हें क्रियान्वित करना बहुत दूर की बात है। एन० आर० राघवाचारी के शब्दों में, “नीति-निदेशक तत्त्वों का उद्देश्य जनता को मूर्ख बनाना वे बहकाना ही है।”
(3) संवैधानिक गतिरोध उत्पन्न होने का भय – इन सिद्धान्तों से संवैधानिक गतिरोध भी उत्पन्न हो सकता है। राज्य जब इन तत्त्वों के अनुरूप अपनी नीतियों का निर्माण करेगा तो ऐसी स्थिति में मौलिक अधिकारों के अतिक्रमण की सम्भावना बढ़ जाएगी।
(4) सम्प्रभुता सम्पन्न राज्य में अस्वाभाविक – ये तत्त्व एक सम्प्रभुता सम्पन्न राज्य में अस्वाभाविक तथा अप्राकृतिक हैं। विद्वानों ने नीति-निदेशक तत्त्वों की अनेक दृष्टिकोणों के आधार पर आलोचना की है, परन्तु इन आलोचनाओं के द्वारा इन तत्त्वों का महत्त्व कम नहीं हो जाता। ये हमारे आर्थिक लोकतन्त्र के आधार-स्तम्भ हैं।
प्रश्न 8.मौलिक अधिकारों की संक्षेप में आलोचना कीजिए।
उत्तर :भारतीय संविधान में वर्णित मौलिक अधिकारों की निम्नलिखित आधारों पर आलोचना की गई है –
1. इनमें शिक्षा प्राप्त करने, काम पाने, आराम करने तथा स्वास्थ्य सम्बन्धी अनेक महत्त्वपूर्ण अधिकारों का अभाव देखने को मिलता है।
2. मौलिक अधिकारों पर इतने अधिक प्रतिबन्ध लगा दिए गए हैं कि उनके स्वतन्त्र उपभोग पर स्वयमेव प्रश्न-चिह्न लग जाता है। अत: कुछ आलोचकों ने यहाँ तक कह दिया है कि भाग चार का शीर्षक नीति-निदेशक तत्त्वों के स्थान पर ‘नीति-निदेशक तत्त्व तथा उनके ऊपर प्रतिबन्ध ज्यादा उपयुक्त प्रतीत होता है।
3. शासन द्वारा मौलिक अधिकारों के स्थगन की व्यवस्था दोषपूर्ण है।
4. निवारक-निरोध द्वारा स्वतन्त्रता के अधिकार को सीमित कर दिया गया है।
5. संकटकाल में कार्यपालिका को असीमित शक्तियाँ प्राप्त हो जाती हैं।
प्रश्न 9.मौलिक अधिकारों के स्थगन पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :मौलिक अधिकारों में विशेष परिस्थितियों के निमित्त संविधान में संशोधन द्वारा संसद अधिकार अस्थायी रूप से भी स्थगित किए जा सकते हैं या काफी सीमा तक सीमित किए जा सकते हैं। इसलिए आलोचकों का विचार है कि संविधान के इस अनुच्छेद का लाभ उठाकर देश में कभी भी सरकार तानाशाह बन सकती है। किन्तु ऐसा सोचना या कहना गलत है; क्योंकि ऐसा सरकार अपने हित में नहीं, वरन् लोकहित में करती है। असाधारण परिस्थितियों में देश और राष्ट्र का हित व्यक्तिगत हित से अधिक महत्त्वपूर्ण होता है, इसीलिए विशेष परिस्थितियों में ही मौलिक अधिकारों को स्थगित या सीमित किया जाता है। अल्लादि कृष्णास्वामी अय्यर के शब्दों में, “यह व्यवस्था अत्यन्त आवश्यक है। यही व्यवस्था संविधान का जीवन होगी। इससे प्रजातन्त्र की हत्या नहीं, वरन् सुरक्षा होगी।”
प्रश्न 10.नीति-निदेशक तत्त्वों के दोषों का विवेचन कीजिए।
उत्तर :नीति-निदेशक तत्त्वों के निम्नलिखित दोष हैं –
1. इन तत्त्वों के पीछे कोई संवैधानिक शक्ति नहीं है। अतः निश्चित रूप से यह नहीं कहा जा सकता कि राज्य इनका पालन करेगा भी या नहीं और यदि करेगा तो किस सीमा तक।
2. ये तत्त्व काल्पनिक आदर्श मात्र हैं। कैम्पसन के अनुसार, “जो लक्ष्य निश्चित किए गए हैं, उनमें से कुछ का तो सम्भावित कार्यक्रम की वास्तविकता से बहुत ही थोड़ा सम्बन्ध है।”
3. नीति-निदेशक तत्त्व एक सम्प्रभु राज्य में अप्राकृतिक प्रतीत होते हैं।
4. संवैधानिक विधिवेत्ताओं ने आशंका व्यक्त की है कि ये तत्त्व संवैधानिक द्वन्द्व और गतिरोध के कारण भी बन सकते हैं।
5. इन तत्त्वों में अनेक सिद्धान्त अस्पष्ट तथा तर्कहीन हैं। इन तत्त्वों में एक ही बात को बार-बार दोहराया गया है।
6. इन तत्त्वों की व्यावहारिकता व औचित्य को भी कुछ आलोचकों के द्वारा चुनौती दी गई है।
7. एक प्रभुतासम्पन्न राज्य में इस प्रकार के सिद्धान्त को ग्रहण करना अस्वाभाविक ही प्रतीत होता है। विधि-विशेषज्ञों के दृष्टिकोण के अनुसार एक प्रभुतासम्पन्न राज्य के लिए इस प्रकार के आदेशों का कोई औचित्य नहीं है।
प्रश्न 11.अधिकार-पत्र किसे कहते हैं? क्या प्रत्येक देश में अधिकार-पत्र का होना आवश्यक है?
उत्तर :अधिकार-पत्र से आशय जब किसी देश के नागरिकों को दिए जाने वाले अधिकारों की संवैधानिक घोषणा की जाती है अर्थात् नागरिकों के अधिकारों को संविधान में अंकित किया जाता है तो उसे ‘अधिकार पत्र’ कहते हैं। सर्वप्रथम अमेरिका के संविधान में अधिकार-पत्र की व्यवस्था की गई थी। संविधान के विभिन्न संशोधनों द्वारा नागरिकों के मौलिक अधिकारों की व्यवस्था की गई और उन्हें अधिकार-पत्र नाम दिया गया। अब अधिकतर देशों में अधिकार-पत्र की व्यवस्था है। भारत में नागरिकों के अधिकारों को अधिकार-पत्र का नाम न देकर मौलिक अधिकारों का नाम दिया गया है। प्रत्येक देश में अधिकार-पत्र की व्यवस्था आवश्यक नहीं-यह आवश्यक नहीं है कि प्रत्येक देश में अधिकार-पत्र की व्यवस्था हो। इंग्लैण्ड के संविधान में अधिकार-पत्र की कोई व्यवस्था नहीं है। यह भी आवश्यक नहीं है कि इसकी व्यवस्था लोकतान्त्रिक देश में ही होती है। चीन में अधिकार-पत्र की व्यवस्था है। वह गणतान्त्रिक देश है।
प्रश्न 12. मौलिक अधिकारों की किन्हीं चार विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
या
मौलिक अधिकारों की विशेषताओं का संक्षेप में उल्लेख कीजिए।
उत्तर : मौलिक अधिकारों की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –
मौलिक अधिकार देश के सभी नागरिकों को समान रूप से प्राप्त हैं।
इन अधिकारों का संरक्षक न्यायपालिका को बनाया गया है।
राष्ट्र की सुरक्षा तथा समाज के हित में इन अधिकारों पर प्रतिबन्ध लगाया जा सकता है।
इन अधिकारों द्वारा सरकार की निरंकुशता पर अंकुश लगाया गया है।
केन्द्र सरकार अथवा राज्य सरकार ऐसे कानूनों का निर्माण नहीं करेगी जो मौलिक अधिकारों का अतिक्रमण करते हों। मौलिक अधिकार न्याययुक्त होते हैं। मौलिक अधिकारों की प्रकृति सकारात्मक होती है।
प्रश्न 13. संवैधानिक उपचारों के अधिकार को स्पष्ट कीजिए।
या
संवैधानिक उपचारों के अधिकार से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर : मौलिक अधिकारों की रक्षा हेतु भारतीय नागरिकों को संवैधानिक उपचारों का अधिकार प्रदान किया गया है। इस अधिकार का तात्पर्य यह है कि यदि राज्य या केन्द्र सरकार नागरिकों को दिये गये मौलिक अधिकारों को किसी भी प्रकार से नियन्त्रित करने का प्रयास करती है या उनका हनन करती है, तो उसके लिए उच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय में सरकार की नीतियों अथवा कानूनों के विरुद्ध अपील की जा सकती है।
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